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दि० पृ० २८८ वर्षे ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
जैन-मन्दिर का चित्रांक समाप्त करने का समय पाया था। इस मन्दिर की गठनप्रणाली सब प्रकार से बहुत प्राचीन काल के समान है । मन्दिर के बीच में केवल खिलानयुक्त ऊँची चोटी का विग्रह कक्ष ( कमरा) है और उसके चारों ओर स्तम्भावलि शोभित गोल बरामदा है यह निश्चय ही जैन-मन्दिर है, कारण कि जैन-धर्म के संग हिन्दु-धर्म का जैसा प्रभेद है, हिन्दु मन्दिर के संग इस मन्दिर की विभिन्नता भी वैसी ही विद्यमान है । भारतवर्ष के बहुत से देवार्चक और शैव लोगों की अधिकाई से कारीगरी की हुई मन्दिरावलि के संग इस जन-मंदिर की तुलना करने से अधिक विभिन्नता और इस मन्दिर का सरल गठन तथा अना. डम्बरता दृष्टिगोचर होती है मन्दिर के बहुत प्राचीन होने का उसकी कारीगरी की न्यूनता से ही प्रकट होता है। और इसी सूत्र से हम स्थिर कर सकते हैं कि जिस समय चन्द्रगुप्त के वंशधर सम्प्रति इस प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ राजा थे; (क्राइस्ट के जन्म के दो-सौ वर्ष पहले ) उस समय यह मंदिर बनाया गया है। किंबदन्ति से ज्ञात होता है कि रजवाड़े और सौराष्ट्र में जितने प्राचीन मन्दिर आज तक विद्यमान हैं, वही उन सब के निर्माता हैं । मन्दिर के स्तम्भों का आकार और परिमाण दूसरे मन्दिरों की स्तम्भश्रेणी के समान नहीं हैं, परन् बिल्कुल अलग है । हिन्दू देवमन्दिरों के स्तम्न जिस प्रकार से गठित और स्थूल होते हैं, यह वैसे न होकर पतले तथा नीचे से ऊपर का भाग सूक्ष्म हो गया है। पाठकों के सामने जो जैन-मंदिर उपस्थित हैं वह प्रीक शिल्पकारों के द्वारा बनाया गया है, अथवा राजपूतना के शिल्पकारों ने प्रीक-शल्पिकारों के आदर्श पर इसे बनाया है । इो सत्य व संभव कह कर अनुमान करने से कौतुहल उपस्थित होता है । .... जैनियों के इस मन्दिर में हिंदुओं द्वारा “जीव पितृ" का कृष्ण पाषाण निर्मित खण्ड अन्याय से ही स्थापित कर दिया गया है । यह मन्दिर पर्वत के ऊपर बना हुआ है और वह पर्वत पृष्ठ ही इसका भीत्तिस्वरूप होने से यह काल के कराल दांतों से चूर चूर न होकर अब तक खड़ा है । इसके पास ही जैनियों का एक और पवित्र देवालय दिखाई देता है, किन्तु बिल्कुल दूसरी रीति से बनाया गया है । यह तिमन्जिला बना हुआ है, प्रत्येक मंजिल छोटे २ असंख्य स्थूल स्थम्भों से शोभायमान है, वह सब स्तम्भ खोदे हुए प्राकार के ऊपर स्थापित हैं और स्तम्भों के ऊपर इस प्रकार की छत है कि सूर्य की किरणें उसके भीतर जाकर अन्धकार दूर करने में समर्थ हैं।"
सम्राट सम्प्रति का धार्मिक जीवन--- जैन साहित्य में विस्तृत रूप से उल्लेख मिलता है कि एक समय आर्य सुहस्ती उज्जैन नगरी जीवित स्वामी की मूर्ति का दर्शन करने पधारे थे। जब वहां के श्रीसंघ रथयात्रा का वरघोड़ा (जलूम) निकाला तो आर्य सुहस्ती अपने शिष्य मण्डल के साथ जलूस में पधारे चलते चलते राजमहलों के पास आये तो मरोखा में राजा सम्प्रति बैठा था । जलूस को देखते देखते उसकी नजर दिव्य तेजस्वी एवं शान्तमूर्ति आर्य सुहस्तीसूरि की ओर पड़ी राजा ने ज्योंही आचार्यश्री को ध्यान लगा कर देखा त्यों ही उनके हृदय में उन महात्मा के प्रति एकदम भक्ति के भाव पैदा हुये जब उसने विशेष स्मृति की तो जातिस्मरण ज्ञान हो आया और राजा सूरिजी को महान् उपकारी समझ महल से उतर कर नीचे आया और सूरिजी के चरण कमलों में वन्दन कर पूछा क्यों भगवान् ! आप मुझे पहचानते हो ? सूरिजी ने पहिले तो कहा कि राजन् ! आप आवंतिधीश हैं आपको कौन नहीं जानता है। राजा ने
१-हिन्दी टाँड राज थान पहला भाग द्वि० ख० अ० २६ पृ. ७२१-२३ । शायद यह मन्दिर राणकपुर का हो जो कमलमेर के किले से नजर आता है।
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