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________________ [ ओसवाल संवत् ११२ आचार्य ककसूर का जीवन ] पुनः पूछा इस पर सूरिजी ने अपने श्रुतज्ञान में उपयोग लगा कर देखा तो अपना शिष्य जान कर कहा कि राजन् ! आपने अपने पूर्व जन्म में जैन दीक्षा ली थी। वास्तव में बात यह बनी थी कि: OVER “आर्य सुहस्तीसूरि के समय एक भयंकर दुष्काल पड़ा था जिसमें जनता को अन्न मिलना दुष्कर हो गया था । एक समय आर्य सुहस्ती के साधु भिक्षा के निमित्त किसी गृहस्थ घर गये थे । साधुओं गृहस्थ के मकान में प्रवेश किया बाद बाहर एक भिक्षुक भी वहाँ आ गया था जब गृहस्थ ने उन साधुत्रों को मष्टान्नादि आहार दिया तो बाहर खड़ा हुआ भिक्षुक देखना था। जब साधु भिक्षा लेकर जाने लगे तो भेक्षुक भी पीछे हो गया और कहने लगा कि हे मुने ! इस भिक्षा में से थोड़ी सी मुझे भी दें कि मैं कई दिनों का भूखा हूँ । इस पर मुनि ने कहा यह कार्य मेरे अधिकार का नहीं है पर मेरे गुरु महाराज के अधिकार का है। बस, वह भिक्षु मुनि के साथ श्रार्य सुहस्ती के पास आया और वही याचना की इस पर सूरिजी ने ऐसे मधुर बचनों से समझाया कि भिक्षुक ने सूरिजी के पास दीक्षा ले ली बस फिर तो था ही क्या नवदीक्षित भिक्षुक के सामने गोचरी के पात्र रख दिये और उसने बहुत दिनों की क्षुधा को भगा देने के इरादे से इतना अधिक भोजन कर लिया कि पूरा पाचन न हो सका । रात्रि में पेट में दर्द इस कदर का हुआ कि जीने की आशा तक छूट गई। जब नूतन साधु की बीमारी की मालूम हुई तो बड़े २ कोटाधीश श्रावक वर्ग तथा साधु और स्वयं आचार्यश्री उसकी व्यावच्च के लिये उपस्थित हुये और उसकी खूब सार संभाल की इस पर उस नवदीक्षित साधु ने सोचा कि अहा ! जैनधर्म कि मेरे जैसे रंक ने केवल जैनधर्म की दीक्षा के नाम से शिर मुंडा कर वेश मात्र धारण किया है जिसमें ही इतने बड़े धनाड्य एवं खुद आचार्य महाराज मेरी इतनी व्यावच्च करते हैं इत्यादि शुद्ध भावना से काल कर मौर्यवंश के राजा कुनाल की कांचनमाला रानी की कुक्ष में जन्म लिया जिसका ही नाम राजा सम्प्रति है । राजा ने कहा भगवान् ! सत्य है मैं आपकी एक दिन की दिक्षा वाला शिष्य हूँ। यह सब राजादि ऋद्धि आपकी कृपा से मिली है । इसको आप स्वीकार कर मुझे कृतार्थ बनावें सूरिजी ने कहा राजन् ! हम forget निर्मन्थों को राज ऋद्धि से कुछ भी प्रयोजन नहीं है जिस जैनधर्म की स्वल्प समय की आराधना से आप इस प्रकार की सुख सम्पत्ति को प्राप्त हुये हैं तो इसको धर्मप्रचार में उपयोग करें कि आपका भविष्य ओर भी कल्याणकारी हो । सूरिजी महाराज के निस्पृही वचन सुन कर राजा का दिल जैनधर्म की ओर विशेष मुक गया और उसी समय राजा सम्प्रति ने सूरिजी के चरण कमलों में वन्दन कर जैनधर्म को स्वीकार कर लिया । पर कई स्थानों पर यह भी लिखा है कि राजा ने आचार्य श्री के स्थान पर जाकर * इतोय अज्जसुहत्थी उज्जेणि जियसामिं वंदओ आगओ रहाणुज्जाणे य हिंडतो राउगणपदेसे रन्ना आलोयण गतेण दिट्टो, ताहे रन्नो ईहपोहं करें तरस जातं (जाइसरणंजातं तहातेण मणुस्सा भणिता-पडिचरह आयरिए कहिं ठितत्ति तेहिं पडिचरिउ कहतं सिरे घिरे ठिता । ताहे तत्थ गंतुं धम्मो णेण सुओ, पुच्छितं धम्मस्स किं फलं ? भणितं "अव्यक्तस्य तु सामाइयस्य राजाति फलं" सो संमंतो हानि (होती ? ) सच्चं भणसि अहं भे कहिं चिट्टि ल्लओ, आयरिएहिं उवउज्जितं दिट्ठेल्लओ ति ताहे सो साबओ जाओ पंचाणुव्वयधारी तसजोव पडिक्कमओ पभावओ समणसंधस्स । "कल्प चूर्णी” Jain Education International For Private & Personal Use Only www.brary.org २९५
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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