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________________ आचार्य कक्कर का जीवन 1 [ ओसवाल संवत् ११२ ― चन्द्रगुप्त को पाटलीपुत्र का राजा न लिख कर उज्जैन का ही राजा लिखा है: "अवंति विषयेऽत्राथ, विजिताखिलमंडले । विवेक विनयानेक धन धान्यादि सम्पदा || ५ || अभादुज्जयिनी नाम्ना, पुरी प्राकारवेष्टिता । श्रीजिनागार सागार - मुनि सद्धर्म मंडिता ॥ ६ ॥ चन्द्रावदात सत्कीर्त्तिश्चंद्रवन्मोदक (कुन्नू) णाम् । चन्द्रगुप्तिर्नृपस्तत्राऽ च कच्चारु गुणोदय ||७|| भट्टारक रत्नानंदि कृत भद्रबाहु चरित्र २ परिच्छद । भट्टारक शुभचन्द्र ने अंग पन्नति नामक प्रन्थ में भद्रबाहु को अंगधर बतलाया है जिसका समय विक्रम की दूसरी शताब्दी के आस पास का स्थिर हो सकता है । देखिये :"अग्गम अंगि सुभद्दो, जसभदो भदबाहु परमगणी । आयरिय परंपराइ, एवं सुदणाणमा वहदि || ४६ || अंग पन्नति प्रस्तुत भद्रबाहु को त केवली नहीं पर अष्टांग निमितधर कहा है । "आयरियो भद्दबाहू, अट्ठ गमहणिमित्त जायरो | णिण्णासइ कालवसे, सचरिमो हु णिमित्ति ओ होदि ॥ ८ ॥ इत्यादि प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि दुष्काल के समय भद्रवाहु अपने चन्द्रगुप्तादि शिष्यों को लेकर दक्षिण में गये थे । वे भद्रवाहु विक्रम की दूसरी शताब्दी के आसपास निमित्तवेत्ता एवं ज्योतिष शास्त्र के विद्वान थे और उनका शिष्य चन्द्रगुप्त कोई गुप्तवंशी राजा होगा, जैसे श्वेताम्बर समुदाय में हरिगुप्त एवं देवगुप्त नाम के गुप्तवंशी क्षत्रियाँ ने दीक्षा लेकर आचार्य हुये थे । श्वेताम्बर ग्रंथों में यह भी लिखा हुआ मिलता है कि आचार्य श्री वज्रस्वामि के समय बारह वर्षीय दुष्काल पड़ा था । आपका समय विक्रम की दूसरी शताब्दी का था, अतः उसी समय दिगम्बर मतानुसार आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) चन्द्रगुप्तादि शिष्यों को लेकर दक्षिण की ओर गये हों तो यह बात संभव हो सकती है और इस कथन से श्रुतकेवली आर्य भद्रबाहु ( प्रथम ) अलग थे और निमितवेता दक्षिण की ओर जाने वाले आचार्य भद्रवाड (द्वितीय) अलग थे। उपरोक्त लेख का सारांश यह है कि भद्रबाहु नाम के तीन आचार्य हुए और इन तीन भद्रबाहु के समय चार बार दुष्काल पड़े थे जैसे कि १-आचार्य भद्रबाहु -- आपका समय वीरनिर्वाण की दूसरी शताब्दी और आप चतुर्दशपूर्वघर श्रुतकेवली के नाम से मशहूर थे २ - आचार्य भद्रबाहु - श्रापका समय विक्रम की दूसरी शताब्दी और आपने उज्जैन के चन्द्रगुप्त को दीक्षा दे कर दक्षिण की ओर विहार करने वाले । ३- आचार्य भद्रबाहु - आपका समय दिगम्बरमत्तानुसार विक्रम की छठी शताब्दी का था और आपके वृद्ध भ्राता वराहमिहिर थे, इन भद्रबाहु ने भद्रबाहु संहिता नामक ग्रंथ की रचना की थी । A -- प्रथम बारह वर्षीय दुष्काल - आर्य भद्रबाहु के समय में । B - द्वितीय बारह वर्षीय दुकाल - मौर्य चन्द्रगुप्त के समय ( पं० मुनि श्री कल्याणविजयजी महाराज के मतानुसार ) तथा आचार्य हेमचन्द्र सूरि कृत परिशिष्ट पर्वानुसार । C - तृतीय बारह वर्षीय दुकाल -- श्रार्य सुहस्ती के समय - वीर नि० की तीसरी शताब्दी । Jain Education International For Private & Personal Use Only २४५ www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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