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वि० पृ० २८८ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
D-चतुर्थ-बारह वर्षीय दुष्काल आर्य ब्रज स्वामि के समय-विक्रम की दूसरी शताब्दी ।
इनके अलावा आचार्य भद्रबाहु के विषय एक प्रश्न और भी है जैसे दिगम्बरों के ग्रंथों में दुष्काल के समय १२००० संघ को साथ लेकर भद्रबाहु दक्षिण की ओर गये थे लिखा है । इसी प्रकार श्वेताम्बर ग्रंथों में दुष्काल के समय भद्रबाहु अग्ने ५०० शिष्यों को साथ ले कर नेपाल की ओर चले गये थे इसका उल्लेख
आवश्यक चूणि आदि ग्रंथों में मिलते हैं; परन्तु परिशिष्टपर्व में आचार्य हेमचंद्र सूरि लिखते हैं कि उस काल के समय भद्रबाहु ने समुद्र के तट पर रह कर काल निर्गमन किया था।
इन दोनों मतों का समाधान इस प्रकार हो सकता है कि शायद आचार्य भद्रबाहु दुष्काल के समय अपने शिष्यों को लेकर समुद्र तट पर अपने निर्वाह के लिये चले गये हों । कुछ अर्सा रहने पर वहाँ निर्वाह होता न देखा हो और वहाँ से नैपाल की ओर चले गये हों तो यह सम्भव हो सकता है। क्योंकि जब पाटलीपुत्र में जैन श्रमणों की सभा हुई थी उस समय भद्रबाहु नेपाल में ही थे और उनको बुलाने के लिये मगध से साधुओं को नेपाल भेजा था जिसका प्रमाण हम ऊपर उद्धृत कर आये हैं । । अतः यह कोई विशेष मतभेद नहीं है।
इन शंकास्पद प्रश्नों का समाधान करके बाद अब हम आचार्यभद्रबाहुके जीवन पर प्रकाश डालते हैं ।
जैनपट्टावल्यादि ग्रन्थों में श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय मगध के सिंहासन पर मौर्य चंद्रगुप्त का राज होना भी बतलाया है । इतना ही क्यों पर मौर्य सम्राट जैनधर्मोपासक था और आचार्य भद्रबाहु स्वामी का परमभक्त भी था । एक समय सम्राट धर्म भावना को लक्ष्य में रख कर रात्रि के समय सो रहे थे तो आपने कुछ निद्रा और कुछ जागृत अवस्था में सोलह स्वप्न देखे और जागृत होने पर सोचने लगे कि ये क्या स्वप्न हैं और इनका भावी फल क्या होगा ? अतः आपने अपने गुरु आचार्य भद्रबाहु के समीप जाकर नम्रता पूर्वक निवेदन किया कि हे प्रभो ! मैंने सोलह स्वप्न देखे हैं उसका भविष्य में क्या फल होगा ? कृपया आप सुनाइये ? श्राचार्य भद्रबाहु ने उन स्वप्नों का फल कहते हुए बतलाया कि ।।
१-पहिले स्वप्न में सम्राट ने कल्पवृक्ष की शाखा टूटी हुई देखी ? फल-अब से कोई भी मुकुटबन्ध राजा जैन दीक्षा नहीं लेगा, क्योंकि वे तृष्णारूपी कीचड़ में ऐसे फंस जायंगे कि इच्छा के होते हुए भी आजीवन संसार में ही रहेंगे।
२- दूसरे स्वप्न में अकाल में सूर्य अस्त हुआ देखा ? फल-अब से किसी को केवलज्ञान उत्पन्न न होगा, क्योंकि पंचमारा के जीव मंद संहनन वाले और अल्प सत्वधारी होंगे; वे अपने मन की चंचलता को रोक नहीं सकेंगे । और बिना मनको रोके केवल ज्ञान नहीं होगा।
* "तंमि य काले बारसवरिसो दुकालो उवठितो सञ्जताइतो य समुद्दतीरे अच्छित्ता पुणरवि पाडलिपुत्ते मिलिता अण्णसस्उद्देसओ अण्णस्स खंड एवं संघाडितेहिं तेहिं एक्कारस अंगाणि संघातिताणि, दिटूिठवादो नत्थि, नेपालवत्तणी भयवं भद्दबाहुस्सामी अच्छति चोदसपुब्बी।"
-आवश्यक चूर्णि "इतश्चतस्मिन्दुष्कालेकरालेकालरात्रिवत् । निर्वाहार्थ साधुसंघस्तीरंनीरनिधेर्ययौ ॥” ।
-परिशिष्ट पर्व सगर
P७६ Jain Educatoernational
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