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________________ वि० सं० ११५ वर्ष । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास होने से प्रतिलेखन के समय सोठ कान से नीचे गिरी। जब जाकर मालूम हुआ कि अब मेरा आयुष्य नजदीक ही है । अतः मुनि बज्रसेन को सूरिपद देकर आप कई मुनियों के साथ एक पर्वत पर जाकर अनशन कर समाधि के साथ स्वर्गवास किया । जब इन्द्र ने इस बात को जाना तो वह विमान लेकर आया। उस पर्वत को विमान सहित प्रदक्षिणा दी जिससे उस पर्वत का नाम रथावर्तन' हो गया। इति वन स्वामि का संक्षिप्त जीवन आर्य्य बज्रसूरि के जीवन की दो महत्वपूर्ण बातें-१-जिस पर्वत पर आर्य वज्र का देह त्याग हुआ वहां इन्द्र आकर रथ सहित प्रदक्षिणा देने के कारण उस पर्वत का नाम 'रथावर्तन हुआ परन्तु आचार्य भद्रबाहु कृत आचारांगसूत्र की नियुक्ति में 'रथावर्तन' का उल्लेख मिलता है इससे पाया जाता है कि उस पर्वत का नाम 'रथावर्तन' पहिले ही से था या नियुक्ति वाला रथावर्तन अलग हो और बज्रस्वामी के देह त्याग वाला रथावर्तन अलग हो । २-दूसरे बनसूरि के पूर्व नवकारमंत्र एक स्वतंत्र सूत्र था और इस सूत्र पर नियुक्ति वगैरह भी स्वतंत्र रची गई थीं परन्तु वज्रसूरि ने उस स्वतंत्र नवकार मंत्र को सूत्रों के आदि में मंगलाचरण के रूप में संकलित कर दिया था। आर्य वज्रसूरि का आयुष्य ८ वर्ष गृहस्थवास, ४४ वर्ष सामन दीक्षा पर्याय, और ३६ वर्ष युगप्रधान पद एवं कुल ८८ वर्ष का आयुष्य अर्थात् वी० नि० सं० ४९६ (वि० सं० २६ ) जन्म, वो० नि० ५०४ (वि० सं० ३४ ) दीक्षा, वी० नि० ५४८ (वि० सं० ७८) युगप्रधान और वी. नि० ५८४ ( वि० सं० ११४ ) में स्वर्गवास हुआ था। आर्य समितमूरि-- और ब्रह्मद्वीपिका शाखा-अाभीर देश में एक अचलपुर नामका नगर था। उसके नजदीक कन्ना और बेन्ना नदियों के बीच में ब्रह्मद्वीप नाम का द्वीप था उस द्वीप में ५०० तापस तपस्या करते थे जिसमें एक तापस ऐसा भी था कि पैरों पर औषधी का लेप कर जल पर चल कर नगर में पारणा ( भोजन ) करने को आया जाया करता था जिसको देख लोग कहते थे कि तपसी की तपस्या का कैसा चमत्कार है कि जल पर चल सकता है। साथ में यह भी कहते थे कि क्या जैनमत में भी ऐसा चमत्कारी महात्मा है ? इस प्रकार अपमानित शब्द सुन कर जैन श्रावकों ने आर्यवज्रसूरि के मामा आर्या समितसूरि को साग्रह आमंत्रण किया। जैनधर्म की उन्नति के लिये सूरिजी शीघ्र पधार गये श्रीसंघ ने सुन्दर किमप्यादिश मे नाथ कार्य सूरिरतोऽवदत । सुमनः सुमनोभिर्ये कार्यमार्य कुरुष्व तत् ॥१५८॥ पूज्यव्य वृत्तिबेलायां ग्राद्यागीति निशम्य सः। ययौ देव्याः श्रियः पार्वे तं क्षुद्रहिमवद्विरिम ॥१५९॥ धर्मलाभाशिषानन्य तां देवी कार्यमादिशत् । ददौ सहस्रपत्रं सा देवाएंथ करस्थितम् ॥१६०॥ तदादाय प्रभुर्वजः पित्रमित्रस्य संनिधौ । आययौ विंशतिर्लक्षाः पुष्पाणां तेन ढौकिताः ॥१६॥ विमानवैक्रिये तांश्वावस्थाप्यागात्रिजे पुरे । जम्भकैः कृतसंगीतोत्सवे गगनमण्डले ॥१६२॥ ध्वनत्सु देवतूर्येषु शब्दाद्वैत विजृम्भिते । तं तदूर्ध्व समायान्तं दृष्ट्वा बौद्धाश्चमत्कृताः ॥१६३॥ ऊचुर्धर्मस्य माहात्म्यमहो नः शासने सुराः । आयान्ति पश्यतां तेषां ते ययुर्जिनमन्दिरे ॥१६४॥ श्राद्धसंघः प्रमुदितः पूजां कृत्वा जिनेशितुः । तत्र धर्मदिने धर्ममश्रौपीद्वसद्गुरौः ॥५६५॥ प्रातिहार्येण चानेन राजा तुष्टोऽभ्युयागमत् । प्रत्यबोधि च वज्रेण बौद्धाश्चासन्नधो मुखाः ॥१६६॥ द्रव्यसंपदि सत्यामप्यन्नदौस्थ्यान्मृतिर्ध वम । ततोऽत्र पायसे पक्वे निक्षेप्यं विषमं विषम् ॥१६७॥ तदत्रावसरे पूज्यदर्शनं पुण्यतोऽभवत् । कृतार्थाः सांप्रतं पारत्रिक कार्यमिहादधे ॥१६८॥ प्र. च० [ भगवान् महावीर की परम्परा ४८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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