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________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५ स्वागत किया। जब श्रावकों ने तापस का सब हाल कहा तो सूरिजी ने फरमाया कि इसमें सिद्धाई और चमत्कार कुछ भी नहीं है । यह तो एक औषधि का प्रभाव है यदि पैर या पावडियों को धो दीजाय तो रोष कुछ भी चमत्कार नहीं रहता है । इस पर किसी एक श्रावक ने तपस्वी को भोजन के लिये आमंत्रण करके अपने मकान पर ले आया और उसके पैर एवं पादुका का प्रक्षालन कर भोजन करवाया । बाद कई लोग उसको नदी तक पहुँचाने को गये । पर तपस्वी पानी पर चल नहीं सके । कारण जो औषधी पैरों एवं पादुकाओं पर लगी हुई थी वह श्रावक ने धो डाली थी इससे तपस्वी की पोल खुल गई और वह लज्जित हो गया । उसी समय वहां पर आर्य समितसूरि भी आये और भी बहुत से जैन जैनेतर लोग एकत्र हो गये । उन सबके सामने जैनाचार्य ने एक ऐसा मंत्र पढ़ कर दोनों नदियों से प्रार्थना की कि मुझे जाना है तुम दोनों एक होकर मुझे रास्ता दे दो। बस इतना कहते ही दोनों नदियों ने एक होकर सूरिजी को रास्ता दे दिया । अतः सूरिजी ने ब्रह्मद्वीप में जाकर उन ५०० तापसों को सत्वज्ञान सुना कर प्रतिबोध दिया । अतः उन ५०० तापसों ने आत्म कल्याण की उज्जल भावना से सूरिजी के पास भगवती जैन दीक्षा स्वीकार करली अतः उन तापसों से बने हुए मुनियों की संतान ब्रह्मद्वीप शाखा के नाम से पहचानी जाने लगी। इस प्रकार जैन शासन में अनेक विद्वानों ने आत्मशक्ति द्वारा चमत्कार एवं उपदेश देकर जैनेतरों को जैन बना कर जैनधर्म की उन्नति एवं प्रभावना की उनके चरण कमलों में कोटि कोटि नमस्कार हो । इनके अलावा भी कई युगप्रधान आचार्य हुये हैं। जिन्हों की नामावली प्रागे चल कर यथा स्थान दी जायगी। आर्यरक्षितहरि---अावंती प्रान्त में अमरापुरी के सदृश्य दशपुर नाम का नगर था वहां उदायन नाम का राजा राज करता था। उसके राज में एक सोमदेव नाम का पुरोहित था । वे थे वेद धर्मानुयायी और उसके रुद्रसोमानाम की स्त्री थी और वह थी जैनधर्मोगासिका और जीवादि नौ तत्व वगैरह जैनधर्म के अनेक शास्त्रों की जानकर भी थी । उसके दो पुत्र थे एक आर्य रक्षित दूसरा फालगुरक्षित । सोमदेव ने आर्य्यरक्षित तेन लेपापहारेण तापसो दुर्मनायितः। नावेदीभोजनास्वादं विगोपागमशङ्कया ॥ ८८ ॥ तापसो भोजनं कृत्वा सरित्तीरं पुनर्ययौ । लोकैर्वृतो जलस्तम्भकुतूहलदिरक्षया ॥ ८९ ॥ लेपाश्रयः स्यादद्यापि कोऽपीत्यल्पमतिः स तु । अलीकसाहसं कृत्वा प्राग्वत्प्राविशदम्भसि ॥ १० ॥ + + + + ततः कमण्डलुरिव कुर्वन्बुडबुडारयम् । ब्रुति स्म सरित्तीरे स तापसकुमारकः ॥ ९१ ॥ वयं मायाविनानेन मोहिताः स्मः कियञ्चिरम् । मलिन्यभूदिति मनस्तदा मिथ्यादृशामपि ॥ १२ ॥ दत्तताले च तत्कालं जने तुमुलकारिणि । आचार्या अपि तत्रागुः श्रुतस्कन्धधुरन्धराः ॥ ९३ ॥ + + तटद्वये ततस्तस्याः सरितो मिलिते सति । आचार्यः सपरीवारः परतीरभुवं ययौ ॥ ९६ ॥ आचार्यैदर्शितं तं चातिशयं प्रेक्ष्य तापसाः । सर्वेऽपि संविविजिरे तद्भक्तश्चाखिलो जनः ॥ ९७ ॥ + + + + आचार्यस्यार्यशमितस्यान्तिके प्रावजन्नथ। सर्वे मधितमिथ्यात्वास्यापसा एकचेतसः ॥ १८ ॥ ते ब्रह्मद्वीपवास्तव्या इति जातास्तदन्वये । ब्रह्मद्वीपिकनामानः श्रमणा आगमोदिताः ॥ ९९ ॥ "परिशिष्टपर्व” आचार्य समितमूरि का चमत्कार ४८९ Jain Education internation For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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