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________________ वि० सं० ११५ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास को पढ़ने के लिए काशी भेजा वहां पढ़ कर अधिक ज्ञान की प्राप्ती के लिये पाटलीपुत्र भी गया । वेद वेदांग सब शास्त्रों का पारगामी होकर वापिस दशपुर अाया। जब नगर के राजादि सब लोगों ने बड़े ही स्वागत के साथ नगर प्रवेश करवाया । जब आर्यरक्षित अपनी माता के पास आया तो उस समय माता रुद्रसोमा सामायिक कर रही थी । अतः आर्य्यरक्षित के नमस्कार करने पर भी उसने कुछ भी सत्कार नहीं किया बाद आर्य्यरक्षित ने पूछा कि माता मेरी पढ़ाई से राजा प्रजा सब लोग खुश हुए एक तुमको ही उदासीनता क्यों ? इस पर माता ने कहा बेटा ! जिस पढ़ाई से संसार की वृद्धि हो उससे खुशी कैसे हो ? यदि तू सम्यक् ज्ञान पढ़ के आता तो मुझे जरूर खुशी होती विनयवान पुत्र ने पूछा कि माता बतला कौनसा ग्रंथ किसके पास पढ़ा जाय और वे पढ़ाने वाले कहाँ पर हैं ? मैं पढ़ कर आपको संतोष करवा दूं। माता ने कहा बेटा ! वह है दृष्टिवाद ग्रंथ, और पढ़ाने वाले हैं तोसलीपुत्र नामक प्राचार्य और वे इस समय इक्षुवाडी में विद्यमान हैं । तू जाकर दृष्टिवाद पढ़ कि तेरा कल्याण हो। रात्रि व्यतीत करने के वाद ज्ञान की उत्कंठा वाला आर्य्यरक्षित घर से चल कर पढ़ने को जा रहा था। रास्ते में एक इक्षुरस वाला साठा लेकर आया और आर्य्यरक्षित को कहा कि हे मित्र ! मैं तेरे लिथे सांठा लाया हूँ । अतः तुम वापिस घर पर चलो। आयरक्षित ने कहा मैं ज्ञानाभ्यास के लिये जा रहा हूँ फिर उसने सोचा कि ९॥ सांठा का अर्थ यही हो सकता है कि मैं जिस दृष्टिवाद का अध्यन करने को जा रहा हूँ उसके ९॥ अध्याय प्राप्त करूंगा। आर्य्यरक्षित चलता २ वहां आया कि जहां तोसलीपुत्र आचार्य विराजते थे पर रज्जा के कारण वह उपाश्रय के बाहर बैठ गया ।इतने में एक ढदुर नामक श्रावक आया उसके साथ उपाश्रय में जाकर प्राचार्य को वंदन किया और दृष्टिवाद पढ़ाने की याचना की पर दृष्टिवाद का अध्ययन तो साधुही कर सकते हैं अत: श्रार्यरक्षित ज्ञान पढ़ने के लिये जैनदीक्षा स्वीकार करने को तैयार हो गया परन्तु आर्यरक्षित ने सूरिजी से अर्ज की कि हे प्रभो । हमारा कुल ब्राह्मण है । अतः मुझे दीक्षा देकर यहाँ ठहरना अच्छा नहीं हैं। अतः श्राप शीघ्र विहार कर अन्य स्थान पधार जावें गुरु ने इसको ठीक समझ आर्यरक्षित को जैन दीक्षा दे दी और वहां से अन्यत्र चले गये और आर्यरक्षित को पढ़ाना शुरू किया। अंगोपांग सूत्र और कई पूर्व पढ़ा दिये जितना कि वे जानते थे शेष के लिये कहा कि तुम आर्य बज्रसूरि के पास जागो जो उज्जैन नगरी में विराजते हैं । अतः आर्यरक्षित अन्य साधुओं के साथ विहार कर वज्रसूरि के पास जा रहे थे। रास्ते में एक भद्रगुप्ताचार्य का उपाश्रय आया । वहाँ आय्यरक्षित गये । अायंरक्षित को देख भद्रगुप्त बहुत खुश हुआ और कहा कि आर्य ! मेरा अन्तिम समय है तुम मुझे मदद एवं साज दो। आर्य्यरक्षित ने मंजूर कर लिया और उनकी व्यावच्च में लग गये । एक समय आर्य भद्रगुप्त ने आर्यरक्षित से कहा कि तू बनसूरि के पास पूर्व ज्ञान पढ़ने को जाता है यह तो अच्छा है पर तू अलग उपाश्रय में ठहर कर अाहार पानी एवं शयन भी अलग ही करना । इसको रक्षित ने स्वीकार कर लिया बाद भद्रगुप्त का स्वर्गवास हो गया और आर्य्यरक्षित चल कर बनस्वामी के पास आ रहा था। बज्रसूरि को रात्रि में स्वप्न भाया कि मेरे दूध का पात्र भरा हुआ था उसमें से बहुत सा दूध एक अतिथि पी गया। जैन संसार में बिना माता पिता की आज्ञा के दीक्षा देना आर्यरक्षित का पहिला ही उदाहरण है और इस दीक्षा दे वह शिष्य निस्फेटा (चोरी) कहा गया है इससे स्पष्ट पाया जाता है कि बिना कुटुम्चियों की आज्ञा जैन साधु किसी को दीक्षा दे नहीं देते हैं। आचारांगसूत्र में सचित अचित मिश्र कोई भी पदार्थ बिना आज्ञा के लेने से तीसरे महावत का भंग है। Jain Edi Dolnternational For Private & Personal use Only भगवान महावीर की परम्प y.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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