________________
आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ]
| ओसवाल संवत् ५१५
___ यह स्वप्न की बात अपने शिष्य को सुनारहे थे कि इतने में आर्य्यरक्षित ने आकर नमस्कार किया। वज्रसूरि ने पूछा क्या तेरा नाम आर्य्यरक्षित है और पूर्वाध्ययन के लिये आया है ? आर्यरक्षित ने कहा, हाँ। फिर बत्रसूरि ने पूछा तुम्हारे भंडोपकरण कहाँ हैं ? आर्य्यरक्षित ने कहा मैं अलग उपाश्रय याचकर भंडोपकरण वहाँ रख आया हूँ तथा आहार पानी शयन वहाँ ही करूंगा और पूर्वो का अध्ययन आपके पास करता रहूँगा। आर्य्यबज्र ने कहा अलग रहने से ज्ञान कम होगा। इस पर आय॑रक्षित ने भद्रगुप्ताचार्य का आदेश कह सुनाया इसपर वज्रसूरि ने श्रुतज्ञान में उपयोग लगा कर देखा तो भद्रगुप्ता वार्य का कहना यथार्थ मालूम हुआ। अतः आर्यरक्षित अलग रह कर आर्यबज्रसूरि से पूर्व ज्ञान का अध्ययन करने लगा और बड़ी मुश्किल से साढ़े नौ पूर्व का ज्ञान किया आगे उनको पढ़ने में थकावट आने लगी।
___ इधर रुद्रसोमा ने सोचा कि मैंने बड़ी भारी भूल की कि आयंरक्षित को दूर भेज दिया। अतः दूसरे पुत्र फाल्गुरक्षित को बुलाकर आयंरक्षित को लाने के लिये भेजा । वह फिरता-फिरता बज्रसूरि के पास आकर अपने भाई से मिला और माता के समाचार सुनाये । इस पर अयंरक्षित ने लघुबन्धु को संसार की असारता बतलाते हुये ऐसा उपदेश दिया कि फाल्गुरक्षित ने जैनदीक्षा स्वीकार करल ।
श्रार्य्यरक्षित को एक ओर तो माता से मिलने की उत्कंठा और दूसरी ओर अभ्यास के परिश्रम से थकावट आरही थी । अतः एक दिन बज्रसूरि से पूछा कि प्रभो ! अब कितना ज्ञान पढ़ना रहा है ? सूरिजी ने कहा अभी तो सरसप जितना पढ़ा और मेरु जितना पढ़ना है । आर्य्य तुम उत्साह को कम मत करो पढ़ाई करते रहो । गुरु आज्ञा को शिरोधार्य कर अभ्यास करने लगा पर उसका दिल एवं अभ्यास शिथिल पड़ गया । अतः बसूरि से श्राज्ञा मांगी कि मैं दशपुर की ओर विहार करूं । बज्रस्वामी ने ज्ञानोपयोग से जान लिया कि इनके लिये ९॥ पूर्व का ज्ञान ही पर्याप्त है । दशवां पूर्व तो मेरे साथ ही चलेगा। अतः आर्य्यरक्षित को आज्ञा देदी । बस, आर्य्यरक्षित अपने भाई फाल्गुरक्षित मुनि को साथ लेकर वहाँ से विहार कर दिया और क्रमश पाटलीपुत्र आये । साढ़े नौ पूर्व पढ़के आये हुये शिष्य का गुरु तोसलीपुत्राचार्य आदि श्रीसंघ ने अच्छा बहुमान किया और आर्य्यरक्षित को सर्वगुण सम्पन्न जानकर अपने पट्टपर आचार्य बनाकर तोसलीपुत्राचार्य अनशन एवं समाधि से स्वंग पधार गये ।
तदनन्तर आर्यरक्षितसूरि विहार कर दशपुर नगर पधारे । आर्य फाल्गुरक्षित ने आगे जाकर अपनी माता को बधाई दी कि आपका पुत्र जैनधर्म का आचार्य बन कर आया है। इतने में तो आर्य्यरक्षितसूरि अपनी माता के सामने आगये जिसको साधुवेश में देख माता बहुत खुशी हुई । बाद पिता सोमदेव भी आया उसने कहा पुत्र तू पढ़ के आया है अतः उद्यान में ठहरना था कि राजा प्रजा की ओर से महोत्सव करवा के तुमको नगर प्रवेश कराया जाता । खैर, माता के स्नेह के लिये नगर में आ भी गया तो अब भी उद्यान में चला जा कि राजा की ओर से महोत्सवपूर्वक तुम्हारा नगरप्रवेश करवाया जाय । बाद इस साधुवेश को त्याग कर तुम्हारे लिये अनेक कन्याओं के प्रस्ताव आये हुये हैं जैसी इच्छा हो उसके साथ तुम्हारा विवाह कर दिया जाय धन तो अपने घर में इतना है कि कई पुश्त तक खाये और खर्च तो भी अन्त नहीं आवे । अतः तुम अपने घर का भार शिर पर लेकर संसार के अन्दर सुख एवं भोग विलास भोगते रहो।
आर्य रक्षित सूरि ने अपने पिता के मोह गर्भित वचन सुन कर इस प्रकार उपदेश दिया कि माता पिता और कुटुम्ब दीक्षा लेने को तैयार होगये परन्तु सोमदेव ने कई शर्ते ऐसी रक्खी कि एक तो मेरे से
Jain Ea आर्य रक्षितमूरि का जीवन ]
For Private & Personal Use Only
४९१ www.janelinary.org