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वि० सं० ११५ वर्ष ]
। भगवान् पार्थनाथ की परम्परा का इतिहास
नग्न नहीं रहा जायगा जो कई जैनश्रमण रहते हैं और दूसरे उपानह (पादुका) कमंडल, छत्र और जनेऊ इन उपकरणों के साथ तुम्हारी दीक्षा ले सकता हूँ। आर्य रक्षितसूरि ने भविष्य का लाभालाभ जानकर उनका कहना स्वीकार कर लिया । और सोमदेव रुद्रसोमा आदि सब कुटुम्ब को दीक्षा देदी।।
मुनि सोमदेव ज्यों ज्यों जैनधर्म का ज्ञान एवं क्रिया का अभ्यास करता गया तथा जैसे जैसे कारगा उपस्थित होते गये वैसे वैसे पूर्व पदार्थों का त्याग करता गया और शुद्ध संयम की आराधना करता रहा तत्पश्चात् दीक्षा लेते समय पूर्व संस्कारों से जो शर्ते कि थी वे सब छूट गई और जैन मुनियों का आचरण अनुसार वर्तने लगा।
आर्य रक्षितसूरि के शासन में अनेक मुनि तपस्वी एवं अभिग्रहधारी तथा लब्धि सम्पन्न थे जैसे १-धृतपुष्पमित्र २-वस्त्रपुष्पमित्र ३-दुर्बलिकापुष्पमित्र नामके साधु थे और अपनी २ लब्धिपूर्वक कार्य करते थे । दुर्बलिकापुष्पमित्र कई बोधलोगों को प्रतिबोध कर सन्मार्ग पर लाये थे।
इनके अलावा आपके गच्छ में चार प्राज्ञावानमुनिवर भी थे १-दुर्बलपुष्पमित्र २-विद्यामुनि ३-फाल्गुनरक्षित और शुक्राचार्य के धर्मशास्त्र को जीतने वाला ४-गोष्टापाहिल नाम के मुनि विख्यात थे जिसमें विद्यामुनि के आग्रह से आर्थरक्षित सूरिने आगमों के चार अनुयोग अलग अलग कर दिये जो पहिले एक ही सूत्र में चारों अनुयोग की व्याख्या की जाती थी।
एक समय आर्य रक्षितसूरि विहार करते हुये मथुरानगरी में पधारे और अधिष्ठायक ध्यान्तर के मन्दिर में ठहरे थे। उस समय इन्द्र श्रीसीमंधर तीर्थङ्कर + को वन्दन करने को महाविदेह क्षेत्र में गया था और वहाँ प्रभु के मुख से निगोद का स्वरूप सुन कर पूछा कि प्रभो क्या भरतक्षेत्र में भी इस प्रकार निगोद की व्याख्या करनेवाले कोई आचार्य हैं ? प्रभो ने कहा हाँ भरतक्षेत्र में श्रार्यरक्षितसूरि नामक पूर्वधर आचार्य हैं । वह निगोद की व्याख्या अच्छी करते हैं । इन्द्रवृद्ध : ब्राह्मण का रूप बनाकर आचार्य रक्षितसूरि के पास आया और निगोद
+ इतश्चास्ति विदेहेषु श्रीसीमंधरतीर्थकृत् । तदुपास्त्यै ययौ शकोऽौषीयाख्यां च तन्मनाः ॥ २४६ ॥ निगोदाख्यानमाख्याच केवली तस्य तत्त्वतः । इन्द्रः पप्रच्छ भरते कोऽन्यस्तेषां विचारकृत ॥ २४ ॥
अथाह माह मथुरानगर्यामार्यरक्षितः । निगोदान्मद्वदाचष्ट ततोऽसौविस्मयं ययौ ॥ २४८ ॥ :: प्रतीतोऽपि च चिनार्थ वृद्धब्राह्मणरूपभृत् । आययौ गुरुपायें स शीघ्रं हस्तौ च धूनयन् ॥ २४९ ॥
काशप्रसूनसंकाशकेशो यष्टिश्रिताङ्गकः । सश्वासप्रसरो विश्वग्गलञ्चक्षुर्जलप्लवः ॥ २५० ॥ एवंरुपः स पप्रच्छ निगोदानां विचारणम् । यथावस्थं गुरुाख्यात्सोऽथ तेन चमकृतः ॥ २५१ ॥ जिज्ञासुनिमाहात्म्यं पप्रच्छ निजजीवितम् । ततः श्रतोपयोगेन व्यचिन्तयदिदं गुरुः ॥ २५२ ॥ तदायुर्दिवसैः पौर्मासैः संवत्सरैरपि । तेषां शतैः सहस्रश्वायुतैरपि न मीयते ॥ २५३ ॥ लक्षाभिः काटिभः पूर्वैः पल्यैः पल्यशतैरपि । तल्लक्षकोटिभि व सागरेणापि नान्तभृत ॥ २५ ॥ सागरोपमयुग्मे च पूर्णे ज्ञाते तदायुपि । भवान सौधर्म सुत्रामा परीक्षां कि म ईक्षसे ॥ २५५ ॥ प्रकाश्याथ निजं रूयं मनुष्य प्रेक्षणक्षमम् । यथावृत्त समाख्याते शक्रः स्थाने निजेऽचलत् ॥ २५६ ॥ प्रतीक्षिणेऽर्थिते किंचिद्यावयतिसमागमम् । रुपद्धिदर्शनैः साधुनिंदानेन न्यवेधयत् ॥ २५७ ॥ तथापि किंचिदाधेहि चिह्नमित्यथ सोऽतनोत् । वेश्म तद्विपरीतद्वाः प्रययौ त्रिदिवं ततः ॥ २५८ ॥
आयाते मुनिभिद्वारे नाप्ते गुरुरुदैरयत् । विपरीतपथायाताजग्मुस्ते चातिविस्मृताः ॥ २५९ ॥ प्र० च०
इन्द्र के पूछे हए निगोद के स्वरूप की घटना कालकाचार्य के साथ घटी जिसका वर्णन पहिले ही दे दिया गया है। क्या आर्य रक्षित सूरि के साथ यह घटना दुबारा घटी है यही वही घटना दो आचार्यों के साथ जोड़ दी है ?
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