________________
आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५१५
का स्वरूप पूछा । इस प्रकार आचार्यश्री ने यथावत स्वरूप कह सुनाया जिससे इन्द्र बहुत हर्षित हुआ बाद इन्द्र ने अपना हाथ आगे कर अपना श्रायुष्य पूछा । आचार्यश्री ने हस्त रेखा देख कर सौ दोसौ एवं तीन सौ वर्ष तक रेखा देखी पर रेखा तो उससे भी आगे हजार लाख करोड़ वर्ष से भी अधिक पस्योपम सागरोपम तक बढ़ती जारही थी । अतः सूरिजी ने श्रुतोपयोग लगाया तो ज्ञात हुआ कि यह तो पहिले देवलोक का इन्द्र है और इसकी दो सागरोपम की आयुष्य है । यह बात इन्द्र को कहीतो इन्द्र ने सूरिजी की बहुत प्रशंसा की और कहा की श्री सीमंधर तीर्थङ्कर ने जैसे आपकी तारीफ की वैसे ही आप हैं । आज्ञा फरमावें कि में क्या करू ? आचार्य ने कहा कि अपने आने का चिन्हस्वरूप कुछ करके बतलाओ कि भिक्षार्थ गये ये साधु को मालूम होजाय कि इन्द्र आया था । अतः इन्द्र ने उपाश्रय का दरवाजा पूर्व में था उसे पश्चिम में कर दिया और सूरिजी को वंदन कर अपने स्थान चला गया । बाद साधु भिक्षा लेकर आये तो पूर्व में दरवाजा नहीं देखा तो उनको बड़ा भारी श्राचर्य हुआ तब गुरु ने कहा मुनियों उपाश्रय का दरवाजा पश्चिम में है अतः तुम उधर से चले आओ शिष्यों ने आचार्य से सब हाल सुना जिससे बड़ा ही आश्चर्य हुआ बाद श्राचार्यश्री ने वहाँ से अन्यत्र विहार कर दिया । आचार्यश्री के जाने के बाद नास्तिक बोधों का मथुरा में आगमन हुआ पर उस समय गोष्टामाद्दिल नामक मुनि ने शास्त्रार्थ कर बाघों को पराजित कर दिया । चार्य रक्षितसूर ने अपनी अन्तिमावस्था जान अपने पट्ट पर किसको स्थापित किया जाय इसके लिये सूरिजी ने दुर्बलपुष्पमित्र को योग्य समझा पर सूरिजी के सम्बन्धियों ने फाल्गुरक्षित के लिये आम्ह किया जो आर्यरक्षित के भाई था और कई एकों ने गोष्टामहिल को सूरि बनाने का विचार प्रगट किया । खिर परीक्षा पूर्वक सूरि पद दुर्बलपुष्पमित्र मुनि को ही दिया गया ।
रक्षितसूरि ने दुर्बलपुष्प मित्र को कहा कि मेरा पिता एवं मामा वगैरह मुनि हैं उन प्रति मेरे जैसा भाव रखना तथा मुनि सोमदेव वगैरह को भी कह दिया कि तुम जैसे मुझे समझते हो वैसे ही दुर्बलपुष्पमित्र को समझना । श्राचार्य रक्षितसूरि ने गच्छ का सुप्रबन्ध करके अनशन एवं समाधि पूर्वक स्वर्ग को ओर प्रस्थान किया । श्राचार्य दुर्बलपुष्पमित्र गच्छ को अच्छी तरह से चलाते हुये एवं सबको समाधि पहुँचाते हुये गच्छ की उन्नति एवं वृद्धि की । परन्तु गोष्टामहिल मुनि ने ईर्षा एवं द्वेष भाव के कारण अपना मत अलग निकाल कर सातवां निन्हव की पंक्ति में अपना नाम लिखाया ।
Jain Edu
रुसोमा पुनस्तत्र श्रमणोपासका तदा । विज्ञातजीवाजीवादि नवतत्त्वार्थं विस्तरा ॥ १६ ॥ कृत सामायिका पुत्रमुत्कण्ठाकुलितं चिरात् । इलातलमिलनमौलिं वीक्ष्यापि प्रणतं भृशम् ॥ १७ ॥ अस्य ग्रन्थस्य वेत्तारस्तेऽधुना स्वेक्षुवाटके । सन्ति तोसलिपुत्राख्याः सूरयो ज्ञानभूरयः ॥ २८ ॥ किंकर्तव्यजस्तत्राजानत् जैनपरिश्रमम् । दट्टरश्रावकं सूरिवन्दकं प्रेक्षदागतम् ॥ ३७ ॥ ध्यात्वा तं सूरयोsवोचन् जैनप्रव्रज्यया विना । न दीयते दृष्टिवादो विधिः सर्वत्र सुंदरः ॥ ४७ ॥ गुरुवः शेषपूर्वाणां पाठायोज्जयिनिपुरि । तमार्यरक्षितं प्रैष: श्रीस्वामिनोन्तिके ॥ ५८ ॥ गीतायैर्मुनिभिः सत्रा तत्रागादार्यरक्षितः । श्रीभद्रगुप्तसूरीणामाश्रये प्राविशत्तदा ॥ ५९ ॥ श्री वज्रस्वामि पादान्ते त्वया पिपठिषानृता । भोक्तव्यं शयनीयं च नित्यं पृथगुपाश्रये ॥ ६५ ॥ तदा च दडशे स्वतः श्रीवत्रेणाप्यजलप्यत । विनेयाग्रेऽय संपूर्णः पायसेन पतन्द्रग्रहः ॥ ७० ॥ वत्स कच्छाभिसंबद्ध' ममास्तु परिधानकम् । नग्नैः शक्यं किमु स्थातुं स्वीयात्मजसुतापुरः ॥ उपानहौ मम स्यातां तथा करक पात्रिका | छत्रिकाथोपवीतं च यथा कुर्वे तव व्रतम् ॥ १५८ ॥
१५५ ॥
आरक्षित का जीवन ]
For Private & Personal Use Only
प्र० च०
www.j४९३ry.org.