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आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५१५
बज्रसूरि ने इस प्रकार उपदेश दिया कि रुखमणि ने दीक्षा ग्रहण करली । उस समय बज्रस्वामी ने आचारांग सूत्र के महाप्रज्ञाध्यन१ से आकाशगामनी विद्या का उद्धार किया। तथा पहले भी देवता ने दी थी। ___ एक समय अनावृष्टि के कारण दुनिया का संहार करने वाला द्वादशवर्षीय दुकाल पड़ा । श्री संघ मिलकर वज्रस्वामि के पास आया और कहा पूज्यवर ! इस सकट से जैनसंघ का उद्धार करो। सूरिजी ने एक कपड़े का पट मंगाओं और तुम सब उस पर बैठ जाओ । बस सब बैठ गये। इतने में शय्यातर घास के लिये गया था वह आया उसने प्रार्थना की तो उसको भी बैठा दिया और विद्या बल से सबको आकाश मार्ग से लेकर महापुरी नगरी में जहां सुकाल वरत रहा था वहां ले आये पर वहां का राजा वोध धर्मोपासक होने से जैन मन्दिरों के लिये पुष्प नहीं लाने देता था। श्री संघ ने आकर अर्ज की कि हे प्रभो ! पर्युषण नजदीक श्रा रहा है और वोध राजा हमको पूजा के लिये पुष्प नहीं लाने देता है। अतः हमारी भक्ति में भंग होता है। अतः आर जैसे समर्थ होते हुये भी हमारा कार्य क्यों नहीं होता है । इस पर वज्रसूरि श्रीसंघ को संतोष करवा कर आप आकाशगामनी विद्या से गमन कर महेश्वरी नगरी के उद्यान में आये वहां एक माली मिला जो कि सूरिजी के पिता का मंत्री था। उसने सूरिजी को वन्दन कर कहा कि कोई कार्य हो तो फरमावें । सूरिजी ने पुष्पों के लिये कहा । माली ने कहा ठीक है आप वापिस जाते हुये पुष्प ले जाना । वहां से वज्रसूरि चूलहेववन्त पर्वत पर गये। और लक्ष्मीदेवी को धर्मलाभ दिया। देवी ने सहस्त्र कली वाला कमल दिया वहां से लौटते समय माली के पास आये | उसने बीस लक्ष पुष्प दिये । बज्रसूरि वैक्रय तब्धि से विमान बना कर पुष्प लेकर आ रहे थे तो देवताओं ने आकाश में बाजे बजाये। वोधों ने सोचा कि देवता हमारे मन्दिरों में महोत्सव करने को आये हैं पर वे तो सीधे ही जिनमन्दिरों में गये और भक्ति करने को लग गये ! तथा बज्रसूरि बीस लक्ष पुष्प लेकर आये इस चमत्कार का प्रभाव वोध राजा प्रजा पर बड़ा भारी हुआ। अतः राजा प्रजा बोध धर्म को छोड़कर जैनधर्म स्वीकार लिया एवं सूरिजी के परमभक्त बन गये ।
___आर्य वज्रसूरि के समय मूर्तिबाद अपनी चरमसीमातक पहुँच गया था कि बज्रसूरि जैसे दश पूर्ष धर जिन पूजा के लिये वीसलक्ष पुष्प लाकर श्रावकों को दिया था जो साधु सचित पुष्पों का स्पर्श तक नहीं कर सकता हैं शायद वह कहा जाय की बज्रसूरि दशपूर्वधर होने से वे कल्पातितथे और जैनधर्म का अपमान दूर करने की गरज से तथा भविष्य का लाभ जानाहो तथा बोधराजा और प्रजा इसी कारण से जैनधर्म स्वीकार करेंगे अतः उन्होंने स्वयं पुष्प लाना अच्छा एवं लाभ का कारण समझा होगा परन्तु इससे इतना अनुमान तो सहज में ही हो सकता है कि उस समय मूर्ति पूजा पर जनता की श्रद्धा एवं रुचि अधिक झुकी हुई थी इसी समय आचार्य यक्षदेवसूरि ने अपने साधुओं को मूर्तियों को सिर पर उठा कर अन्यत्र ले जाने की आज्ञा दी थी कि म्लेच्छ लोग मूर्तियों को तोड़ फोड़कर नष्ट नहीं कर सके ।
पूर्व जमाने में नवकार मंत्र एक स्वतंत्र ग्रन्थ था और आचार्यों ने इस नवकार मंत्र पर स्वतंत्र नियुक्ति आदि विवरण किया था पर बज्रसूरि ने उस नवकार मंत्र को सूत्रों की आदि में मंगलाचरण के रूप में कर दिया और वह आज भी कई सूत्रों के मंगलाचरण के रूप में विद्यमान है।
आचार्य वज्रसूरि महा प्रभाविक प्राचार्य होगये हैं । आपके जीवन में एक नहीं पर अनेक घटनायें ऐसी घटी कि जिससे जैनधर्म की वहुत उन्नति हुई । एक समय आप विहार करते दक्षिण की ओर जा रहे थे। उस वक्त श्लेष्म हो जाने से सोंठ लाये थे जितनी जरूरत थी खाई शेष कान पर रखदी परन्तु विस्मृति
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