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________________ वि० सं० १७७-१९९ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास चल कर सूरिजी महाराज के पास आये । सूरिजी उन दोनों का हाल सुनकर बड़े ही प्रसन्न हुये और यथा समय सन्यासीजी को बड़ी दीक्षा देकर आप का नाम सन्यासमूर्ति रख दिया जो भविष्य में भी आपकी स्मृति करवाता रहे । मुनि सन्यासमूर्ति विद्यामंत्रों का तो पहिले ही जानकार था फिर भी आप रहे मुनि वीरशेखर के पास । वीरशेखर ने पहिले तो जैन धर्म के स्याद्वाद रहस्यमय सिद्धान्तों का अध्ययन करवाया जिससे वे जैनांगोपांगादि सब शास्त्रों के जानकार बन गये। बाद मुनि सन्यासमूर्ति को मत मतान्तरों के वाद विवाद में भी प्रवीण बना दिया। क्योंकि उस समय इसकी भी परमावश्यकता थी। ___ पट्टावलीकार लिखते हैं कि मुनि वीरशेखर और सन्यासमूर्ति ने अपने आत्मिक चमत्कारों से कई हजारों जैनेतरों को जैन बनाये । इतना ही क्यों पर कई सन्यासियों और बौद्ध-भिक्षुओं को भी जैन दीक्षा दी थी। कहा भी है कि चमत्कार को सब नमस्कार करते हैं । जैसे रत्नाकर रत्नों से शोभा पाता है वैसे ही सिद्धसूरि ऐसे सिद्धपुरुषों-मुनियों से जगत में शोभा पाते हुए शासन कार्य करने में विख्यात हो रहे थे । इस गच्छ की अधिक उन्नति होने का मुख्य कारण यही है कि इस गच्छ में शुरू से ही एक ही आचार्य होता आया है। हजारों साधु भिन्न २ प्रान्तों में विहार करने वाले होने पर भी वे सब एक आचार्य की आज्ञा का आदरपूर्वक पालन करते थे । आप श्री के अलावा कोरंटगच्छ के आचार्य एवं मुनि वे भी मरुधरादि प्रान्तों में विहार करते थे पर वे भी उपकेशगच्छाचार्यों के साथ अच्छा मेल मिलाप एवं उनकी आज्ञा का पालन किया करते थे और उनका विहार प्रायः आबू के आस पास के प्रदेश में ही होता था तब उपकेशगच्छाचार्यों का विहार दक्षिण से लगा कर पूर्व तक होता था। आचार्य सिद्धसूरि के ज्यों ज्यों साधुओं की वृद्धि होती गई त्यों त्यों अन्योन्य प्रान्त में मुनियों को भेजते गये जैसे कई साधुओं को बुलेन्दखण्ड की ओर तथा कई को शूरसेन एवं मत्सप्रदेश की ओर भेज दिये और आप अपने विशाल साधुओं के साथ विहार कर दिया महेश्वरी विदेशी माण्डवगढ़ हरीपुर मड़कोली पथोली दशपुर वगैरह प्रदेश में जैन धर्म का साम्राज्य स्थपित कर रहे थे तब इसके निकटवृत्ति मेदपाट में भी जैनधर्म का काफी प्रचार था उस प्रदेश में आज भी जैनधर्म के अनेक प्राचीन स्मारक चिन्ह उपलब्ध होते हैं जब सूरिजी चित्रकोटादि होते हुए आधाट नगर की ओर पधारे तो वहाँ के श्रीसंघ के उत्साह का पार नहीं रहा संघ की ओर से सूरिजी का अच्छा स्वागत किया और श्री संघ की साग्रह विनती को स्वीकार कर सूरिजी ने आधाट नगर में चतुर्मास करने का निर्णय कर लिया बस ! फिर तो कहना ही क्या था जनता का उत्साह खूब बढ़ गया और भावुक लोग आत्मकल्याणार्थ धर्म कार्य में संलग्न हो गये। सूरिजी महाराज का व्याख्यान हमेशा हो रहा था श्राप श्री के व्याख्यान में न जाने क्या जादू था कि सुनने वाले मंत्र मुग्ध बन जाते थे । चतुर्मास समाप्त होने में ही था एक दिन सूरिजी ने उपदेश दिया कि उपकेशवंशियों। आपकी जन्मभूमि उपकेशपुर है वहां पर आपके पूर्वजों को आचार्यरत्नप्रभसूरि ने मांस मदिरादि दुर्व्यसन छोड़ कर जैनधर्म में दीक्षित किये थे आपके लिये वह भूमि एकतीर्थ स्वरूप है विशेषता में शासनाधीश चरमतीर्थङ्कर भगवान महावीर का मन्दिर की यात्रा करने काबिल है इत्यादि सूरिजी के उपदेश का इस कदर प्रभाव हुआ कि उसी सभा में श्रेष्टि गौत्रीय मंत्री मुकन्द ने उठकर प्रार्थना की कि प्रभो ! मेरी इच्छा है कि मैं उपकेशपुर का संघ निकाल कर भगवान महावीर की यात्रा करूँ इसमें यहां के श्रीसंघ तो मुझे सहयोग देगा ही पर आप साहिबजी को भी इस संघ में पधार कर मेरे उत्साह को बढ़ाना चाहिये अतः मेरी विनति Jain Education international For Private & Personal use o. [ मुनि सन्यासमूर्ति और धर्म प्रचार .....
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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