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________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] | ओसवाल संवत् ५७७-५९९ तो क्रमशः रास्ते के क्षेत्रों की पर्शना करते हुए दक्षिण में पधारे और आप वहाँ पर जाकर क्या देखते हैं कि उपकेशगाछीय सैकड़ों साधु दक्षिण में विहार करते हैं। आचार्य सिद्धसूरि को आये सुनकर साधु साध्वियों के मुण्ड के झुण्ड आपके दर्शनार्थ आने लगे । उनका धर्मप्रचार देख सूरिजी को बड़ा ही संतोष हुआ कारण उन दक्षिण विहारी साधुओं का प्रभाव बड़े २ राजा महाराजाओं पर हो रहा था और काफी तादाद में जनता जैनधर्म का आराधन कर रही थी। आचार्य श्री ने वह चतुर्मास तो मदुरा नगरी में किया बाद चतुर्मास के दक्षिण बिहारी श्रमण संघ की मानखेट राजधानी में एक सभा की जिसमें प्रायः दक्षिण बिहारी सब साधु एकत्र हुये जिसमें अधिक साधु तो दक्षिण के जन्मे हुए ही थे। आचार्य श्री ने कइ योग्य साधुओं को पदवी प्रदान कर उनके उत्साह बढ़ाया तत्पश्चात् श्राप दक्षिण भूमि में बिहार कर दूसरा चतुर्मास मानखेट नगर में किया और वहाँ के साधुओं की ठीक व्यवस्था कर दक्षिण से बिहार कर तैलंगादि प्रांत में घूमते हुए भावन्ति प्रदेश में पधारे और आपका चतुर्मास उज्जन नगरी में हुआ। श्राचार्यश्री के हस्त दीक्षित वीरशेखर नाम का एक लघु शिष्य था पर विद्यामंत्रों में वह वृद्ध कहलाता था। एक समय मुनि वीरशेखर जंगल में जा रहा था तो पीछे से एक सन्यासी भी आया। उसने पूछा कि अरे मुनि ! तुम केवल दुनिया को भारभूत ही हो या कुछ विद्यामंत्र भी जानते हो ? मुनि ने उत्तर दिया कि विद्या और मन्त्र तो सब हमारे घर से ही निकले हैं और लोग तो हमारे ही यहां से विद्या मन्त्र प्राप्त कर सिद्ध बन बैठे हैं जैसे एक समुद्र के छींटे उड़ते हैं उन छींटों से ही लोग अलग तालाब बना लेते हैं । बालमुनि के गौरवपूर्ण शब्द सुनकर सन्यासी ने मुनि के रास्ते पर इतने सर्प बना दिये कि मुनि का मार्ग ही बन्द होगया अर्थात पैर रखने जितनी भी जगह नहीं रही । इसको देख मुनि समझ गया कि यह सन्यासी की करामात है पर मुनि ने अपनी विद्या से इतने मयूर बनाये कि उन सपों की पूछे पकड़ पकड़ कर आकाश में लेगये जिसको देख सन्यासी मन्त्रमुग्ध बन गया कि यह लघु साधु तो बड़ा ही चमत्कारि दीखता है । सन्यासी ने अपनी विद्या से हस्ती ही हस्ती बना दिये । मुनि ने अपनी विद्या से हस्तियों पर अकुंश लिये हुये महावत बना दिये कि उनके अंकुश लगाने से हस्ती चिल्लाहट करते लग गयी। ___ सन्यासी अपनी मेकला (थैली ) से एक गुटका निकाल उसका पैरों पर लेप कर आकाश में उड गया पर मुनि तो बिना ही लेप किये केवल अपनी विद्या के बल से ही आकाश में गमन कर योगी के साथ नभमण्डल में घमने लग गये इत्यादि कई प्रकार विद्या बाद हुआ आखिर मुनि ने उस सन्यासी को कहा कि महात्माजी । यह तो सब वाह्य विद्यायें हैं। केवल इन विद्याओं को इस प्रकार बतलाने से ही प्रात्म कल्याण नहीं हैं। आप उस विद्या को सीखो कि जिससे आत्मा से परमात्मा बन सको। सन्यासी ने कहा मुनि । वह विद्या कौनसी है कि जो आत्मा से परमात्मा बना सके ? मुनि ने कहा सम्यक् ज्ञान दर्शन चारित्र इनकी आराधना करने से आत्मा परमात्मा बन सकता है । सन्यासी ने पूछा कि मैं इस में नहीं समझता हूँ कि सम्यक ज्ञान दर्शन चारित्र क्या पदार्थ है ? और इसकी आराधना किस प्रकार की जाती है मुनिवर्य ने सम्यक् ज्ञान दर्शन चारित्र के भेद प्रभेद का विवरण करके बतलाया और साथ में पंच महाव्रतरूप दीक्षा लेकर इनकी आराधना का मार्ग भी बतला दिया। अतः सन्यासीजी ने उसी जंगल में अपना वेश छोड़ कर मुनि वीरशेखर के पास भगवती जैनदीक्षा ग्रहण करली और वे दोनों मुनि वीरशेखर और सन्यासी ] For Private & Personal Use Only Jain E For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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