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________________ वि० सं० १७७ - १९९ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मनुष्य के अन्दर जान डालने वाला उपदेश ही है । आज सूरिजी के उपदेश का प्रभाव प्रत्येक आत्मा पर इस प्रकार हुआ कि उनकी सुरत धर्मप्रचार की ओर लग गई । क्या साधु और क्या श्रावक सबके मुँह से यही शब्द निकल रहे थे कि हम धर्म प्रचार के लिये प्राणों की आहुति देने को भी तैयार हैं। जिस को सुनकर सूरिजी ने बहुत संतोष प्रगट किया और बाद में जैनधर्म की जयध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई। इस सभा से सूरिजी को अपने निर्धारित कार्य के लिये बहुत सफलता मिली। जिस कार्य को आप चाहते थे वह कार्य बड़े ही उत्साह के साथ कर पाये । कई मुनियों को पदवियां प्रदान कर अन्योन्य प्रान्तों में विहार करवाया जिसमें सूरिजी महाराज ने स्वयं ३०० साधुओं के साथ दक्षिण देश की ओर विहार करने का निश्चय कर लिया और कितने साधुओं को तो दक्षिण की ओर विहार भी करवा दिया। पूर्व जमाने में जैनाचार्य जैनधर्म के प्रचार के निमित किस प्रकार प्रयत्न करते थे। आज कल कांग्रेस कमेटियां और सभायें होती हैं और इनके द्वारा जनता में जागृति की जाती है ये कोई नई बातें नहीं हैं पर हमारे पूर्वाचार्यों से ही चली आई हैं। मरुधरादि प्रान्तों में विहार करने वाले उपकेशगच्छाचार्यों के जीवन के लिये आप पिछले प्रकरण में पढ़ आये हैं कि प्रत्येक प्राचार्यों ने अपने शासन समय किसी न किसी प्रान्त में एक दो श्रमण सभायें अवश्य की हैं और उन सभाओं द्वारा चतुर्विध श्रीसंघ में खूब जागृति पैदा की। यही कारण था कि एक ओर से वाममागियों का दूसरी ओर से बौद्धों का तीसरी ओर से वेदान्तियों का जोरदार आक्रमण होने पर भी जैनाचार्यों ने कटिवद्ध होकर जैनधर्म का रक्षण ही नहीं बल्कि जैनधर्म का जोरों से प्रचार भी बढ़ाया था। जिन स्वयंप्रभसूरि और रत्नप्रभसूरि ने लाखों की संख्या में जैन बनाये थे पिछले आचार्यों ने उनकी संख्या को बढ़ाकर करोड़ों तक पहुँचा दी थी और इस प्रचार कार्य में उनको बड़ी बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था । जिनकी उन्होंने कुच्छ परवाह ही नहीं रखी वे आचार्य थे स्याद्वाद के जान चतुर मुत्सद्दी । कार्य करने की हथोटी उनको याद थी । जहाँ नये जैन बनाते वहाँ तत्काल ही जैन मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा तथा जैन विद्यालय की स्थापना करवा देते तथा उनको धर्मोपदेश के लिये नये नये साधुओं को भेजते रहते थे कि उन नूतन श्रावकों की धर्म पर श्रद्धा दृढ़ हो जाती । इधर श्रावक वर्ग भी श्राचार्य श्री की आज्ञा के पालक थे । नूतन जैनों के साथ वे बड़ी खुशी के साथ रोटी बेटी व्यवहार कर अपने स्वधर्मी भाई समझ अपने बराबरी के बना लेते थे। बहुत से नगरों में तो प्राचार्य श्री के उपदेश से ऐसा रिवाज सा ही हो गया था कि कोई भी नया साधर्मी नगर में श्राकर वसता था तो एक एक ईंट और एक एक रुपैया एवं सुवर्ण मुद्रका प्रत्येक घर से अर्पण किया जाता था कि वह सहज ही में धनवान् एवं व्यापारी बन जाता था। इसके अलावा एक 'सारथवाह' पद की भी उस समय विशेषता थी कि वह अपने साधर्मी भाइयों को ही नहीं पर नगर निवासियों को देशान्तर ले जाते थे और अपनी रकम देकर व्यापार करवाते थे कि कोई भाई बेकार न रहे । उन सारथवाह का द्रव्य न्यायोपार्जित होने से उस द्रव्य से सैकड़ों मनुष्य लाम उठा सकते थे। हाँ, मनुष्यों की उन्नति के दिन आते हैं तब सब संयोग अनुकूल बन जाते हैं। अतः वे दिन जैनों की उन्नति के थे कि चतुर्विध श्री संघ में प्रेम, स्नेह, ऐक्यता और प्रत्येक व्यक्ति की प्रवृति जैनधर्म की वृद्धि की ओर रहती थी। ___ अस्तु । आचार्य सिद्धसूरीश्वरजी महाराज ने अपने शिष्य मण्डन के साथ दक्षिण की ओर विहार किया [ मरिनी के पटेल का प्रभाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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