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आचार्य सिद्धसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५७७-५९९
उस समय के श्रमणसंघ में कितनी वात्सल्यता थी वह आप इस सम्मेलन से जान सकोगे कि क्या भगवान पार्श्वनाथ के सन्तानिये और क्या भगवान महावीर के सन्तानिये आपस में मिल जुलकर जैन धर्म का प्रचार करते थे इस सम्मेलन में भी दोनों परम्परा के आचार्य अपने अपने आज्ञावृत्ति साधुओं को लेकर आये थे और सबके दिल में जैनधर्म के प्रचार की लग्न थी पृथक २ गच्छ परम्परा के प्राचार्य होने पर भी उनका सब व्यवहार शामिल था कि गृहस्थ लोगों को यह मालूम नहीं देता था कि श्रमण संघ में दो पार्टी अर्थात् दो परम्परा के साधू हैं यही कारण था कि उस समय के श्रमण संघ जो चाहते वह कर सकते थे एक दूसरे के कार्य को अनुमोदन कर मदद पहुँचाते थे तब ही जैनों की संख्या करोड़ों तक पहुँच गई थी।
वल्लभी श्री संघ ने आगंतुकों के लिये पहिले से ही अच्छा प्रबन्ध कर रक्खा था तथा सभा के लिये भी ऐसा मण्डप तैयार करवा दिया था कि जिसमें हजारों मनुष्य सुखपूर्वक बैठ सकें। ठीक समय पर आचार्य श्री सिद्धसूरि के अध्यक्षत्व में सभा हुई सभा में चतुर्विध श्रीसंघ उपस्थित था। राजा शिलादित्य ने पधारने वाले चतुर्विधि श्रीसंघ का उपकार माना। वाचक विमलकलास ने सभा का उद्देश्य कह सुनाया तत्पश्चात् आचार्यश्री ने जैनधर्म प्रचार के लिये पूर्वकालीन परिस्थिति और जैनश्रमण संघ का त्याग और वैराग्य एवं विहार क्षेत्र की विशालता बतलाते हुये अपनी ओजस्वी वाणी द्वारा आचार्य स्वयंप्रभसूरि, रत्नप्रसूरि, यज्ञदेवसूरि, कक्कसूरि, देवगुप्तसूरि, सिद्धसूरि, आर्य, सुहस्तीसूरि आदि आचार्य और इनके आज्ञावृति साधुओं का इतिहास सुनाया कि जैनधर्म के प्रचार के लिये उन्होंने किस प्रकार की कठिनाइयों का सामना किया था। इतना ही क्यों पर अपने प्राणों को भी अर्पण करने की भीषण प्रतिज्ञा करली थी । चार चार मास तक उन्होंने आहार पानी के दर्शन तक भी नहीं किये थे । इतना ही क्यों पर उन पाखण्डियों ने उन तपस्वी साधुओं को दुःख देने में संकट पहुँचाने में कुछ भी उठा नहीं रक्खा था। पर धर्म प्रचार के निमित्त उन्होंने सब को सहर्ष सहन कर अपने ध्येय की पूर्ति कर ही ली थी । अगर उस समय की परिस्थिति को स्मरण किया जाय तो आज अपने को न तो किसी प्रकार का कष्ट है और पाखरियों का उपद्रव ही है । आज तो अपने केवल प्रत्येक प्रान्त में विहार करना और जिस साहित्य की आवश्यकता है उसका अध्ययन करना एवं वादी प्रतिवदियों के सामने खड़े कदम डट कर रहने की जरूरत हैं । इससे आप जैनसमाज का रक्षण एवं वृद्धि कर जैनधर्म का झंडा सर्वत्र फहरा सकोगे। मानो सूरिजी ने उन श्रमणसंघ की आत्मा में नयी बिजली का संचार कर दिया। साथ में राजा महाराजा और सेठ साहुकारों की और लक्ष्य करके आपने फरमाया कि जैनधर्म का प्रचार करने में केवल एक श्रमण संघ ही पर्याप्त नहीं है पर साथ में आप लोगों के सहयोग की भी आवश्यकता है पूर्व जमाने राजा श्रोणिक, कौणिक, चन्द्रगुप्त, सम्पति, ठल्पदेव, रुद्राट और शिवदत्तादि नरेशों ने तथा उहडादि मन्त्रियों ने और धनाठ्य गृहस्थोंने जैनधर्म के प्रचार के लिये खूब परिश्रम कर आचार्यों को सहयोग दिया कि जिन प्रान्तों में जैन धर्म का नाम निशान नहीं था पर आज वहाँ जैनधर्म की ध्वजा फहराने लगगई और सैकड़ों हजारों जैन मंदिर और लाखों करोड़ों मन्दिरों के उपासक आपकी नजरों के सामने विद्यमान हैं फिर भी अभी आपको बहुत काम करना है । पूर्व जमाने में आचार्यों ने दक्षिण प्रान्त में कई साधुओं को विहार करवाया था पर इस समय दक्षिण में क्या हो रहा है इसका पता नहीं है । अतः समर्थ साधुओं को दक्षिण की ओर भी विहार करना चाहिये ।।
इत्यादि सूरीजी ने खूब ही उपदेश दिया । सज्जनों ! उपदेश एक किस्म की बिजली है । मृत प्रायः
बल्लभी नगर में श्रमण सभा ]
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