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वि० सं० १७७-१९९ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
सत्ता के कारण उनके पैर जम नहीं सकते थे । आचार्य सिद्धसरि वल्लभी में बिराजते थे । उस समय बौद्धाचा बुद्धार्य भी अपने शिष्यों के साथ बल्लभी में आया था और अपने धर्म के प्रचार के लिये उपदेश भी देता था यह बात जैनाचार्य्यं सिद्धसूरि से कब सहन होने वाली थी । आप के पास एक विमल - कलस नाम का वाचक था उसने वादी चक्रवर्ति की उपाधि को चरितार्थ करते हुये शास्त्रार्थ में अनेक वादियों को पराजय किया था । अतः वह बुद्धार्य से कब चूकने वाला था। उस समय वल्लभी में राजा शल्यादित्य राज करता था वाचक विमल कलस ने राजसभा में जाकर शास्त्रार्थ के लिये कहा और राजा ने मंजूर कर दोनों आचार्यों को आमंत्रण दे दिया और ठीक समय पर सभा हुई । आचार्य सिद्धसूरि वाचकजी के साथ पधारे। उधर बौद्धाचार्य भी अपने साधुत्रों के साथ आये पर स्याद्वाद सिद्धान्त के मर्मज्ञ वाचकजी के सामने विचारा क्षणक मत वाले वोध कहाँ तक ठहर सकता । बस, थोड़े ही समय में बौद्धाचार्य को परास्त कर दिया और जैनधर्म की जयध्वनि के साथ आचार्य श्री अपने स्थान पर श्रागये और बौद्धाचार्य वहाँ से रफूचक्कर होगया ।
आचार्य सिद्धसूरि ने उस समय की परिस्थिति देखकर वल्लभी में एक श्रमण संघ की सभा करने का विचार कर अपने साधुओं की सम्मति लेकर यह प्रस्ताव राजा शिलादित्य एवं सकल श्री संघ के सामने रखा और कहा कि इस समय बौद्धों का भ्रमण आपकी तरफ ही नहीं पर और भी कई प्रान्तों में हो रहा है । अत: जैन धर्म की रक्षा के लिये सकल श्रीसंघ को कटिबद्ध हो जाना चाहिये जिसमें भी श्रमण संघ को तो प्रत्येक प्रान्त में बिहार कर जनता को सदुपदेश देना चाहिये। इतना ही नहीं पर साधुओं को स्वपरमत के साहित्य का भी गहरा अध्ययन करना चाहिये । कारण अब जमाना ऐसा नहीं है कि केवल क्रिया कांड में ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लें। अब तो वादियों के सामने स्याद्वाद शस्त्र लेकर खड़े रहने का जमाना है । अतः एक श्रमणसंघ की सभा होना जरूरी है ।
सूरिजी के कहने का मतलब श्रीसंघ अच्छी तरह से समझ गया और सूरिजी के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर श्रमणसभा बुलाने का निश्चय कर लिया । निश्चय ही क्यों पर कार्य प्रारम्भ भी कर दिया अर्थात् जहां २ मुनि महाराज विराजते थे वहाँ वहाँ खास श्रावकों को आमन्त्रण के लिये भेज दिये । उस समय के श्रमणसंघ के हृदय में जैनधर्म की कितनी बिजली थी वह इस कार्य से ठीक पता लग जाता कि आमंत्रण मिलते ही केवल नजदीक २ ही नहीं पर बहुत दूर दूर के साधु विहार करके वल्लभी नगरी की ओर आ रहे थे। सभा का समय भी इसलिये दूर का रक्खा गया था कि नजदीक और दूर के सब साधु इस सभा में शामिल हो सकें। ठीक है दीर्घ दृष्टि से किया हुआ कार्य्यं विशेष फलदाता होता है । इस सभा में केवल श्रमणसंघ ही एकत्र हूये हों ऐसी बात नहीं थी पर श्रादवर्ग भी शामिल थे और यह कार्य भी दोनों का ही था, रथ चलता है, वह दो पहियों से ही चलता है फिर भी मुख्यता श्रम संघ की ही थी एवं श्रमण संघ की संख्या सैकड़ों की नहीं पर हजारों की थी और इसके कई कारण भी थे जैसे एक तो आचार्य श्री के दर्शन दूसरे धर्म प्रचार की भावना तीसरा बहुत साधुओं को समागम और चौथा विशेष कारण यह था कि वल्लभी के पास ही सिद्धगिरि तीर्थ था कि जिसकी यात्रा का लाभ मिल सके । अतः चतुर्विध श्री संघ की अच्छी उपस्थिति थी वल्लभियों ही तो एक यात्रा का धाम था पर इस सम्मेलन के कारण तो विशेष बन गया । यह वही वल्लभी है कि जहाँ श्रागम पुस्तकारुढ़ किया गया था ।
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[ वल्लभी नगरी में श्रमण सभा
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