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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५७७-५९९
दीक्षा के महोत्सव में खूब खुल्ले हाथों से द्रव्य व्यय करने को उत्साहित हो रहे हैं। नगर में सर्वत्र सूरिजी महाराज की भूरि भूरि प्रशंसा और यशोगान गाये जा रहे हैं। वर्तमान हैं तो पंचमारा पर आज तो माडव्यपुर में चौथा आरा ही वरत रहा है ।
शुभ मुहूर्त में सूरिजी महाराज के वृद्धहस्ताविन्द से तेजसी आदि ५७ नर नारियों की दीक्षा बड़े ही ठाठ से होगई। सूरिजी ने तेजसी का नाम राजहंस रख दिया। जो साधु रूप हंसों में राजा ही था । बस व्यापारी जैसे व्यापार में लाभ मिलजाने के बाद फौरन रवाना होजाता है वैसे ही सूरिजी महाराज को पुष्कल लाभ होगया अब वे क्यों ठहरें अपने शिष्य मंडल को साथ लेकर सूरिजी उपकेशपुर की ओर बिहार कर दिया। मुनि राजहंस को पहिले से ही संयम की रुचि और ज्ञान पढ़ने की उत्कंठा विशेष थी फिर श्राचार्य कक्कसूरिजी की पूर्ण कृपा तब तो कहना ही क्या ? स्वल्प समय में ही आपने सामायिक साहित्य का अध्ययन कर लिया । ग्यारह अंग एवं चारपूर्ण तो आपने इस्तामलक की भांति कण्ठस्थ ही कर लिये थे | व्याकरण, न्याय, तर्क, छन्द, काव्यादि के धुरंधर विद्वान् होगये विशेषता यह थी कि आपने दीक्षा लेने के पश्चात् एक दिन भी गुरु सेवा नहीं छोड़ी थी । पहिले जमाने के साधु गुरुकुल वास में रहने में अपना गौरव समझते थे । बात भी ठीक है कि जो गुण हासिल होते हैं वह गुरुकुल वास में रहने से ही होते हैं। मुनि राजहंस को योग्य समझ कर सूरिजी ने अष्ट महानिमित्त का अध्ययन करवा कर कई विद्याएँ भी प्रदान करदी जिससे मुनि राजहंस की योग्यता और भी बढ़ गई ।
आचार्य ककसूरी महाराज लाट सौराष्ट्र और कच्छादि प्रदेश में विहार करते हुये सिन्धधरा में पधारे आप का चतुर्मास मारोटकोट नगर में हुआ। आप के बिराजने से यों तो बहुत उपकार हुआ पर १७ भावुकों ने दीक्षा लेने का निश्चय किया और चतुर्मास के बाद श्री संघ ने दीक्षा के निमित्त बड़ा ही समारोह से महोत्सव किया और उन दिक्षाओं के साथ मुनिराज हंसादि ७ साधुओं को उपाध्याय पध्यानान धानादि पांच साधु को वाचकपद संयमकुशलादि तीन मुनियों को प्रवृतकपद मंगलकलसादि ११ मुनियों की गाणिपद प्रदान किया । हाँ, जहाँ विशाल समुदाय होता है और उनको अन्योन्य प्रान्तों में विहार करवाना पड़ता है तब पदवीधरों की भी आयश्यकता रहती है। सुरिजी ने अपने शासन में भूभ्रमन कर धर्म का प्रचार बढाया । आचार्य ककसूरि ने अपने पट्ट पर उपाध्याय विशालमूर्ति को सूरि बनाकर उनका नाम देवगुप्तसूरि रख दिया था पर देवगुप्तसूरि का आयुष्य अल्प था । वे केवल ३ वर्ष ही आचार्य पद पर रहे और अन्त में श्र ने पद पर उपाध्याय राजहंस को सूरिपद से विभूषित कर आपका नाम सिद्धसूरि रख दिया था ।
हमारे चरित्रनायक सिद्ध सूरीश्वरजी महाराज बाल ब्रह्मचारी महान तपस्वी साहित्य के धुरंधर विद्वान एवं निर्मित शास्त्र के पारगामी और विद्या भूषीत मरुधर एक जगमगाता सितारा ही थे । आपश्री जी के आज्ञावृति श्रमण संघ मरुधर मेदपाट श्रावंती लाट सौराष्ट्र कच्छ सिन्ध पजाब महाराष्ट्र और सूरसेनादी सब प्रान्तों में विहार करते थे । उन सबकी संख्या कई पांच हजार से भी अधिक थी ।
एक समय सूरिजी अपने विद्वान शिष्यों के साथ विहार करते हुए पुनित तीर्थ श्री शत्रुंजय की यात्रा कर वल्लभी नगरी में पधारे थे। उस जमाने का वल्लभी जैनों का एक केन्द्र ही था। श्रीसंघ ने सूरि का शानदार स्वागत किया और सूरिजी का भंड़ेली व्याख्यान हमेशा होता था ।
ठीक उसी समय सौराष्ट्र में कहीं-कहीं बौद्धों के मिक्षु भी भ्रमण करते थे पर जैनाचायों की प्रबल
माडव्यपुर में ५७ भावुकों की दीक्षा ]
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