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आचार्य रत्नप्रभसूर का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ६९८-७१०
था । 'उपकेशे बहुलं द्रव्यं' इस वरदान के अनुसार शाह देदा कोटाधीश था और आपके तीनों पुत्रों ने भी पुष्कल द्रव्य उपार्जन किया था शाह राणा ने सातबार तीथों की यात्रार्थ संघ निकाल कर शत्रुञ्जय से सम्मेतशिखर तीर्थों तक तमाम तीर्थों की यात्रा की । शाह साहरण ने श्रीशत्रुञ्जय पर भगवान महावीर का विशालमन्दिर बनाया । शाह लुम्बा ने सोपारपट्टन में भगवान श्रदीश्वर का चौरासीदेहरीवाला मंदिरबनवाया और साधम्र्मी भाइयों को सोने का थाल और सुवर्ण मुद्रिका की पहरामणी दी । उस समय में श्रीसंघ को अपने घर बुलाकर इस प्रकार की पहिरामणी देना बड़ा ही गौरव का कार्य समझा जाता था उस जमाने के लोग अपने निज के लिये बिल्कुल सादा जीवन स्वल्प खर्चा रखते थे पर धर्म कयों में खूब खुले दिन से द्रव्य व्यय करते थे और उनके पुन्य ही ऐसे थे कि ज्यों ज्यों शुभ काथ्यों में लक्ष्मी व्यय करते थे त्यों त्यों लक्ष्मी उनके घरों में बिना बुलाये आकर स्थिर बास कर बैठ जाती थी । क्योंकि उस जमाने के व्यापार में सत्य न्याय और पुरुषार्थ एवं तीन बातें मुख्य समझी जाती थीं जो खासकर लक्ष्मी को प्रिय थी। इन त्रिपुटी बन्धुओं की उदारता के लिये तो पट्टावलीकार लिखते हैं कि इनके घर पर कोई भी व्यक्ति आशा करके आता था वह कभी निराश होकर नहीं जाता था । जिसमें भी साधर्मियों के लिये तो और भी विशेषता थी । शाह लुम्बा के यों तो पांच पुत्र थे पर उसमें एक खेमा नाम का पुत्र बड़ा ही होनहार था । उसका अधिक समय धर्म कार्य में ही जाता था। वह संसार से सदैव विरक्त रहता था । श्रात्मिक ज्ञान की उसको बड़ी भारी रुचि थी जिसमें भी योगाभ्यास के लिये तो खेमा विशेष प्रयत्न करता था। सोपारपट्टन में साधुओं का संयोग विशेष मिलने से खेमा धर्म करनी में संलग्न रहता था ।
एक समय धर्मप्राण लब्ध प्रतिष्ठित धर्म प्रचारक आचार्य श्री सिद्धसूरीश्वरजी महाराज अपने विद्वान शिष्य समुदाय के साथ विहार करते हुये सोपारपट्टन पधार रहे थे । इस बात की खबर मिलते ही श्री संघ के हर्ष का पार नहीं रहा श्रतः सुन्दर स्वागत कर सूरिजी का नगर प्रवेश करवाया। यह वे ही सूरिजी हैं कि एक दिन सारंग के रूप में अनगिनती सुवर्ण शुभकाय्यों में व्यय किया था । अतः ऐसे त्यागी महात्मा प्रति जनता की अधिक से अधिक भक्ति हो इसमें आश्चर्य की बात ही क्या हो सकती है ।
सूरिजी का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य पर हुआ करता था कि जिसका जनता पर खूब ही प्रभाव पड़ता था। एक दिन के व्याख्यान में सूरिजी ने संसार की असारता, लक्ष्मी की चंचलता, आयुष्य की अस्थिरता और कुटुम्ब की स्वार्थता, के विषय में व्याख्यान देते हुये कहा कि संसार की असारता समझ कर छः खण्ड में एक छत्र राज करने वाले चक्रवर्तियों ने श्रात्म भावना से दीक्षा लेकर अपना कल्याण किया है । भगवान रामचन्द्र और पांच पांडव कब जानते थे कि लक्ष्मी को छोड़ हमको बन बन में भटकना पड़ेगा। एक अरब और पैंतीस करोड़ सोनाइयों का धरणी धन्नाशाह कब जानता था कि मैं धीरोटी के टुकड़े के लिये घरघर का दास बन जाऊँगा । भगवान् श्रीकृष्ण कब जानते थे कि सुवर्णमय द्वारामती छोड़कर मैं बन में पानी के लिये विविता मर जाऊँगा । श्रायुष्य की अस्थिरता के लिये पल्योपम और सागरोपम के आयुष्य क्षय हो जाते हैं । तीर्थङ्कर और चक्रवर्तियों के आयुष्य क्षीण हो जाते हैं भगवान् महावीर देव से इन्द्र ने प्रार्थना की थी कि आप अपने आयुष्य को एक समय न्यूनाधिक कर दें पर कुटुम्ब की स्वार्थता, क्या राजा श्रेणिक यह जानता था कि मेरा पुत्र ही राजा प्रदेशी यह जानता था कि मेरी श्रद्धांगना मुझे जहर देदेगी ? क्या
पैसा करने में वे भी असमर्थ थे । मुझे कारागृह में डाल देगा ? क्या ब्रह्मदत्त स्वप्न में भी कभी जानता
सूरिजी महाराज का त्यागमय उपदेश ]
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