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________________ वि०सं० २९८ - वर्ष ३१० ] भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास था कि मेरी माता ही मुझे अग्नि में जला देने का प्रयत्न करेंगी इत्यादि हजारों उदाहरण विद्यमान हैं फिर समझ में नहीं आता है कि संसारी जीव किस विश्वास पर निश्चित होकर बैठे हैं। प्यारे श्रात्मबन्धुओं ! पूर्व जमाने में कुछ अच्छे कर्म किये थे जिससे तो यहाँ सब सामग्री अनुकूल मिल गई है पर भविष्य के लिये क्या करना है। शास्त्रकारों ने फरमाया है कि :-- जहा यतिनि वणिया, मूलं एगो मूलं पि हारिता, आगओ घेत्तूरा निग्गया तत्थ वाणिओ । एगोऽत्थ लहइ लाहं, एगो मूलेण आगओ ॥ । ववहारे उवमा एसा एवं धम्मे वियाह ॥ जैसे एक साहूकार ने अपने तीनों पुत्रों को बुलाया और उनको एक एक हजार रुपये देकर दिसावर भेज दिये । उसमें एक ने तो एक बड़े नगर में जाकर सुन्दर मकान किराये पर लेकर खूब मौज मजा और रंग राग खाना पीना भोग विलास में लग गया और वे हजार रुपये थोड़े दिनों में खर्च कर दिये और सेठजी के नाम पर कर्जा करना हुन्डियें लिखना शुरु कर दिया। तब दूसरा पुत्र ऐसे नगर में पहुँचा कि जहाँ थोड़ा बहुत धंधा करने खर्च जितनी पैदास कर अपना गुजारा चलाने लगा । और तीसरा पुत्र ऐसे नगर में गया कि जहाँ व्यापार कर लाखों करोड़ों रुपये पैदास कर लिये । तब पिताजी ने तीनों पुत्रों को एक ही साथ में बुलाये तथा पुत्रों के आने के बाद जो एक एक हजार रुपयों की रकम दी थी उसको वापिस मांगी। तो एक ने रकम खर्च करदी और उलटा कर्जा बतलाया दूसरे ने ज्यों के त्यों हजार रुपये देदिये और तीसरे ने जो व्यापार में पैदा करके लाया था वे लाखों रुपये पिता जी के सामने रख दिये । बतलाइये पिता किस पुत्र पर खुश होगा ? यही दृष्टान्त अपनी आत्मा पर घटाइये कि एक एक हजार की रकम तुल्य मनुष्य भव मिला है । एक मनुष्य ने खाना पीना भोग विलास कर मनुष्य जन्म व्यर्थ खोदिया और ऐसे पाप कर्म रूपी कर्जा कर लिया कि भविष्य में नरक एवं तिर्यच में जाना पड़े तब दूसरे मनुष्य ने न तो ज्यादा पाप किया और न ज्यादा पुण्य ही किया उसने मनुष्य भव का मनुष्य भव में जाने जैसा कर्म किया । तब तीसरे मनुष्य ने मनुष्य जन्म बड़ी दुर्लभता से मिला जानकर सामग्री के सद्भाव दान पुण्य सेवा पूजा तीर्थयात्रा मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा साधर्मी भाइयों से वात्सल्यता और अन्त में भोग विलास एव संसार को छोड़ दीक्षा लेकर पुन्योपार्जन किया वे मनुष्यभव छोड़ कर स्वर्ग सुखों के अधिकारी बन गये । इसमें भी उत्कृष्ट मार्ग तो दीक्षा लेना ही है कि एक दो या पन्द्रह भवों में जन्म मरण के दुःखों से छूट कर मोक्ष में चला जाय इत्यादि, वैराग्यमय देशना दी । यों तो सूरिजी के उपदेश ने सब पर ही असर किया था पर वीर खेमा पर तो इतना प्रभाव डाला कि वह दीक्षा लेने को तैयार होगया और कई पचास नर नारी खेमा का अनुकरण करने को कटिबद्ध होगये । खेमा के माता पिता स्त्री और पुत्रों ने बहुत कुछ समझाया पर खेमा का रंग हल्दी जैसा नहीं था कि ताप लगने से उतर जाय । खेमा ने सब को समझा कर दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया । शाह लुम्वा ने अपने पुत्र की दीक्षा का बड़ा भारी महोत्सव किया जिसमें तीन लक्ष्य द्रव्य व्यय किया । ठीक शुभ मुहूर्त्त में सूरिजी ने खेमादि ५० नर नारियों को भगवती जैन दीक्षा देकर उन सबका उद्धार किया । खेमा का नाम मुनि गुणा तिलक रक्खा गया । मुनि गुणतिलक बड़ा ही त्यागी वैरागी तपस्वी और ध्यानी था आपके ज्ञानावर्णिय कर्म, मोहनीयकर्म और अन्तरायकर्म एवं तीनों कर्मों का क्षयोपशम था कि उसने थोड़ा परिश्रम करने पर ही वर्तमान साहित्य का अध्ययन कर लिया । वह भी केवल जैन साहित्य ही नहीं पर जैनेतर साहित्य का भी परम ज्ञानी बन गया । व्याकरण, न्याय, तर्क, छन्द, काव्य तथा ज्योतिष और अष्टांग निमित्त का भी पारगामी होगया । ७३८ Jain Education International [ त्यागपर तीनवणक पुत्रों का उदाहरण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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