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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ४५२
आखिर वहाँ पर अनशन और समाधिपूर्वक स्वर्गवास किया । आपके पट्ट पर श्री संघ ने महेन्द्रोपाध्याय को आचार्य पद पर स्थापित किया । महेन्द्रसूरि बड़े ही विद्यावली एवं चमत्कारी पुरुष थे उन्होंने सर्वत्र विहार कर जैनधर्म की अच्छी उन्नति एवं प्रभावना की ।
सिद्धनागार्जुन आप वीर क्षत्रिय संग्रामसिंह को सुशीलभार्या सुत्रता के पुत्र रत्न थे । तीन वर्ष की शिशु अवस्था में ही आप इतने वीर थे कि एक सिंह के बच्चे को मार डाला था । नागार्जुन बनस्पति जड़ी बूटी एवं सिद्ध रसायन का बड़ा ही प्रेमी था । कई महात्माओं की कृपा से उसको अनेक औषधियों की प्राप्ती भी हुई थी। सुवर्णरस विद्या तो उसके हाथ का एक भूषण ही बन चुकी थी । नागार्जुन अधिक समय जंगल में ही व्यतीत करता था। एक समय औषधियों और विद्या से समृद्ध बना हुआ नागार्जुन अपने घर पर आया जैसे कोई व्यापारी धन कमा कर घर पर आता है ।
एक
नगर में आने के बाद उसने सुना कि यहाँ एक पादलिप्तसूरि आचार्य पधारे हैं और वे पादलेप से आकाश में गमन करते हैं । नागार्जुन ने आकाशगामिनी एवं पादलेप विद्या की प्राप्ती की गरज पात्र (बी) में कुछ सुवर्ण सिद्धि रस भर कर अपने शिष्य के साथ पादलिप्तसूरि के पास भेजा । शिष्य जाकर तुंबी सूरिजी को दी और सब हाल भी कह दिया । निस्पृही सूरिजी ने उसे बेकार समझ कर पात्र के साथ एक ओर फेंक दी। इस पर उस शिष्य ने बड़ा ही अफसोस किया । तब सूरिजी ने कहा तू फिक क्यों करता है तुझे पात्र एवं भोजन मिल जायगा । किसी श्रावक को सूचित करा दिया। जब वह शिष्य
ने
दे दिया कि इसे नागार्जुन साथ मित्रता कर क्या लाभ उसने सूंघा तो पेशाब
जाने लगा तो सूरिजी ने एक कांच का पात्र (शीशी) में पेशाब भर कर उसको को दे देना | शिष्यधिक दुःख कर विचारने लगा कि नागार्जुन ऐसे मूखों उठाना चाहता है ? खैर, शिष्य ने ज्यों की त्यों आकर शीशी नागार्जुन को दे दी । की बदबू आने लगी । उसने शीशी को एक पत्थर पर डाल दिया । शीशी फूट गई और पेशाब उस पत्थर पर गिर गया। बाद जब औषधी बनाने के लिए अग्नि लगाई और अग्नि का स्पर्श उस पत्थर पर लगा तो वह पत्थर ही सब सोना बन गया । तब तो नागार्जुन को बड़ा आश्चर्य हुआ और उसका सब गर्व गल कर पानी हो गया । उसने सोचा कि मैंने तो इतने वर्ष परिश्रम कर बड़ी मुश्किल से इस रसायन को प्राप्त की है तब इन महात्मा के सब शरीर एवं मलमूत्र भी सुवर्ण सिद्धि हैं इत्यादि ।
- विद्यादेव्यः षोडशापि चतुर्विंशतिसंख्यया । जैना यक्षास्तथा यक्षिणण्यश्च वोऽभिदधाम्यहम् ॥ २१६ ॥ इत्युक्त तेन दैवी वाक् प्रादुरासीद्ददुरासदा । एषां प्रव्रज्यया मोक्षोऽन्यथा नास्त्यपि जीवितम् ॥२१८॥ अभिषेकेण तेषां गीमुत्कला च व्यधीयतः (त) । पृष्टा अङ्गीकृतं तैश्च को हि प्राणान्न वछति ॥ २१९ ॥ उत्तिष्टतेति तेनोक्ता भ्राम्यताथापरालता । सज्जीबभूवुः प्राग्वत्त े जैना ह्यमितशक्तयः ॥ २२० ॥ संघेन सह रोमांचकुरकन्दलितात्मान । राज्ञा कृतोत्सवेनाथ स्वं विवेशाश्रयं मुनिः ॥ २२१ ॥ अवावबोधतीथ श्रीभृगुकच्छपुरे हि यैः । श्रीभार्यखपटाख्यानां प्रभूणां महिमाद्भुतम् ॥ २२५॥ इत्यार्थ खपटश्चक्रे शासनस्य प्रभावनाम् । उपाध्यायो महेंद्रश्व प्रसिद्धिं प्रापुरद्वयताम् ॥ २२८॥ अथार्थ पटः सूरिः कृतभूरिप्रभावनः । अन्तेऽनशनमाधाय दैवीभुवमशिश्रियत् ॥ २३३॥ श्रीमहेन्द्रस्ततस्तेषां पट्टे सूरिपदेऽभवत् । तीर्थयात्रां प्रचक्राम शनैः संयमयात्रया ॥ २३४॥
ये पाटलीपुत्रे द्विजाः प्रव्रजिता बलात । जातिवैरेणतेनात्र ते मत्सरमधारयन् ॥ २३५ ॥ प्र० च०
आचार्य पादलिप्तसूर]
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