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वि० सं० ५२ वर्ष ।
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
नागार्जुन-आचार्य पादलिप्त के पास जाकर उनकी स्तुति करता हुआ उनका अनुरागी बन गया। बाद सूरिजी पैरों पर लेप कर आकाश मार्ग से शत्रुजय, गिरनार, अष्टापद शिखर और आवंदाचल की यात्रा कर के वापिस आये । नागार्जुन ने लेप पहिचान ने की गरज से आचार्य श्री के पैरों का प्रक्षालन किया जिसमें सुगन्ध से स्पर्श से और अन्य प्रकार से १०७ औषधियों को जान गया। जब वह जंगलों से
औषधियां लाकर अपने पैरों पर लेप कर आकाश में गमन करने लगा। थेड़ा थोड़ा उड़ता पर एक औषधी की न्यूनता के कारण वह वापिस गिर जाता था जिससे उसके घुटने से रुधिर बहने लग गया। जिसको देख सूरिजी ने कहा बिना गुरु से विद्या फलीभूत नहीं होती है। नागार्जुन ने कहा कि मैंने अपनी बुद्धि की परीक्षा की है । आचार्य श्री ने कहा कि यदि मैं तुझे आकाशगामनी विद्या बतलाऊं तो बदले में तू मुझे क्या देगा ? नागार्जुन ने कहा जो आप फरमावें वही दूंगा।
गुरु-मैं दूसरा कुछ भी नहीं चाहता । तू पवित्र जैनधर्म स्वीकार कर और उसका ही पालन कर । कारण इन भौतिक विद्याओं से आत्म कल्याण नहीं पर आत्मकल्याण जैनधर्म की आराधना से ही होगा।
नागार्जुन ने स्वीकार कर लिया।
सब सूरिजी ने कहा कि जो मसाल १०७ औषधियों द्वारा एकत्र किया है उसको कांजी और चावलों के जल के साथ मिलाले जिससे आकाश में गमन कर सकेगा। नागार्जुन ने ऐसा ही किया और वह आकाश में गमन करने में सफल हो गया।
&-तत्र नागार्जुनो नाम रससिद्धिविदांवरः । भाविशिष्यो गुरोस्तस्य तद्वत्तमपि कथ्यते ॥२४९॥
तृणरत्नमये पात्रे सिद्ध रसमढौकयत् । छात्रो नागार्जुनस्य श्री पादलिप्तप्रभो पुरः ॥२६२॥ स प्राह रससिद्धयं ढौकने कृतवान् रसम् । स्वान्तद्धनमहोस्नेहस्तस्येत्येवं स्मितो व्यधात् ॥२६३॥ पात्रं हस्ते गृहीत्वा च भित्तावास्फाल्य खण्डशः । चक्रे च तन्नरों दृष्ट्वा व्यवीदद्वक्र वक्रभृत् ॥२६४॥ मा विषीद तब आद्धपवतो भोजनं वरम् । प्रदापयिष्यते चैव मुवत्वा संमान्य भोजितः ॥२६५॥ तस्मै चापृच्छयूमानाय काच पात्रं प्रपूर्य सः । प्रश्रावस्य ददौ तस्मै प्राभृतं रसवादिने ॥२६६॥ नृनमस्मद्गुरुर्मूखः यो ऽनेन स्नेहमिच्छति । विमृशन्निति स स्वामिसमीपं जन्मिवांस्ततः ॥२६७॥ पूज्यैः सहाद्भता मैत्री तस्येतिस्मितपूर्वकम् । सम्यगविज्ञप्य वृत्तान्तं तदमन्त्रं समार्पयत् ॥२६॥ द्वारमुन्मुद्य यावत्स सन्निधत्त दृशोः पुरः । आजिघ्रति ततः क्षारविस्रगन्धं स बुद्धवान् ॥२६९॥ अहो निर्लोभतामेष मूढ़तां वा स्पृशेदथ । विमृश्येति विषादेन बभंजाश्मनि सोऽपि तत् ॥२७॥ देवसंयोगतस्तकेन वह्निः प्रदीपितः । भक्ष्यपाकनिमित्तं च क्षुत्सिद्धस्यापि दुःसहः ॥२७१॥ पक्वानृजलवेधेन ववियोगेसुवर्णकम् । सुवर्णसिद्विमुत्प्रेक्ष्य सिद्धशिष्यो विसिमिये ॥२०२॥ सूरयश्च मुनिव्राते गते विचरितु तदा । प्रागुक्तपंचतीर्थान्ते गत्वा व्योन्ना प्रणम्य च ॥२८३॥ समायान्ति मुहूर्तस्य मध्ये नियमपूर्वकम् । विद्याचारणलब्धीनां समानास्ते कलौ युगे ॥२८॥ आयातानामथैतेषां चरणक्षालनं ध्रुवम् । जिज्ञासुरौषधानीह निर्विकारञ्चकार सः ॥२८५॥ स जिघ्रन् विशन् पश्यन् स्वादयम् संस्पृशन्नपि । प्रज्ञावलादौषधीनां जज्ञे सप्ताधिकं शतम् ॥२८६॥ कृतज्ञेन ततस्तेन विमलादूरुपत्यकाम् । गत्वा समृद्धिभाक् चक्रे पादलिप्ताभिधं पुरम ॥२९९॥ अधित्यकायां श्रीवीरप्रतिमाधिष्ठितं पुरा। चैत्य विधापयामास स सिद्धः साहसीश्वरः ॥३७०॥ प्र.च.
[ श्री वीरपरम्परा
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