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________________ वि० सं० ५२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास 1 कहा कि प्राप की आज्ञापालन करने को हम सब लोग तैयार हैं पर यह एक नया कार्य्य है | अतः इसके लिये आप अपने ज्योतिषियों से कह दें कि शुभ मुहूर्त देखकर सब ब्राह्मण राजसभा में एकत्र हो जाये और हम सब लोग भी राजसभा में श्रावेंगे। इससे राजा ने खुश होकर वैसा ही किया। दिन मुकर्र किया । उस दिन सब ब्राह्मण गले में जनेऊ और कपाल पर तिलक करके राजसभा में श्राकर उच्चासन पर बैठ गये । राजा राजकर्मचारी और नागरिक लोग भी एकत्र हुये । इधर से महेन्द्रर्षि जैन साधुओं को लेकर राजसभा में आये | सभा का दृश्य देख कर राजा से पूछा कि क्या पूर्व सन्मुख बैठे हुये ब्राह्मणों को नमस्कार करें या पश्चिम बैठ हुओं को ? ऐसा कहते ही सामने बैठे हुये ब्राह्मणों की पीठ पर लाल कन्नेर की कांब फेरी कि वे तत्काल मृत्युवत मूर्छित हो गये। इस घटना को देख सभा आचार्य मुग्ध और भयभ्रान्त हो गई। राजा ने सोचा कि इसमें अपराध तो मेरा ही है कहीं मेरी भी यह हालत न हो जाय । राजा ने चट से सिंहासन से उठ कर महेन्द्रर्षि के चरणों में गिर कर प्रार्थना की कि हे विद्याशाली ! हमारी अज्ञानता के लिये क्षमा करावें । मुनि ने कहा राजा तुमने बहुत अन्याय किया है । पहिले भी बहुत एक गृहस्थ ब्राह्मण को त्यागी नमस्कार करे ऐसा आग्रह किसी ने भी नहीं किया इत्यादि । ने कहा कि यह हमारी अज्ञानता थी पर अप महात्मा हैं अब इन ब्राह्मणों को सचेत करो । कारण इनके सब कुटुम्ब वाले रुदन एवं करुण आक्रन्दन कर रहे हैं इस पर मुनि ने कहा कि मैं देव देवियों राजा हो गये पर राजा कोशिश करूंगा । ऐसा कह कर आकाश की ओर मुँह करके देवताओं से कहा कि तुम इन ब्राह्मणों को अच्छा कर दो। देवों ने कहा कि यदि यह ब्राह्मण जैन दीक्षा स्वीकार करें तो सचेत हो सकते हैं नहीं तो सब मर जायंगे । जीवन की इच्छा वाले क्या नहीं करते हैं सब ने स्वीकार कर लिया अतः महेन्द्रर्षि ने कन्नेर की दूसरी श्वेत कांब फेरी तो वे सब सचेत हो गये । इससे जैन धर्म की महान प्रभावना हुई । राजा प्रजा ने जैनधर्म स्वीकार कर बड़े ही गाजे बाजे एवं महोत्सव पूर्वक महेन्द्रर्षि को अपने उपाश्रय पहुँचाया । ब्राह्मण दीक्षा लेने को तैयार हुये पर महेन्द्रर्षि ने कहा कि यह कार्य्यं हमारे आचार्य महाराज का है और वे इस समय भरोंच नगर में विराजते हैं। अतः श्रीसंघ की अनुमति से महेन्द्रर्षि ब्राह्मणों को लेकर भरोंच आये और श्रीसंघ के महोत्सव पूर्वक सब ब्राह्मणों को सूरिजी ने दीक्षा प्रदान की । आचार्य पादलिप्तसूरि जिनका वर्णन पूर्व आ चुका है उन्होंने आचार्य खपटसूरि के पास में रहकर अनेक आगमों का एवं चमत्कारी विद्याओं का अभ्यास किया था और पादलिप्तसूरि ने एक पादलिप्त नाम की भाषा का भी निर्माण किया था कि दूसरा कोई समझ ही नहीं सके । हाँ जिसको पादलिप्तसूरि बतलाते वे जरूर समझ सकते थे । आचार्य पर अधिक समय भरोंच नगर में रहे थे और उन्होंने जैनधर्म की बहुत उन्नति की + ऊचे तेन क्षितेर्नाथ यदपूर्वमिदं हि नः । पूर्वं पूर्वा मुखान् किंवा नमामः पश्चिमामुखान् ॥२०५॥ जलपति निकरेणासौ करवीरलतां किल । संमुखानां परावृत्य पृष्ठे चाभ्रामयत्ततः ॥ २०२॥ आलुचितशीपास्ते निश्चेष्टा मृतसंनिभाः । अभूच्चभूपतेवर्क विच्छायं शशिवद्दिने ॥ २०३ ॥ x पुनवी ढं पः प्राह त्वमेव शरणं मम । देवो गुरुः पिता माता कि मन्यैर्लल्लिभाषितैः ॥ २१४॥ प्र० च० ४३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only [ श्री वीर परम्परा www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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