________________
आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ओसवाल संवत् ४५२
के परमभक्त बन गये। बाद यक्ष एवं मूर्तियों को अपने स्थान जाने की प्राचार्यश्री ने आज्ञा दे दी और दो कुडियें वहां ही पड़ी रहीं। इस चमत्कार से नगर में जैन धर्म की खूब प्रशंसा होने लगी और जनता पर जैनधर्म का अच्छा प्रभाव पड़ा । राजा और प्रजा जैनधर्म के परमोपासक बन गये ।
आचार्य खपटसूरि गुडशस्त्र नगर में विराजते थे उस समय भरोंच से दो मुनियों ने आकर निवे. दन किया कि आप श्री तो यहां पधार गये पीछे मना करते हुये भुवनमुनि ने खोपरी उघाड़ कर पत्र पढ़ लया और उस विद्या से सरस आहार लाकर रसगृद्धी बन गया है। स्थविरों ने उपालम्भ दिया तो वह जाकर बोद्धों x में मिल गया और विद्या प्रयोग से श्रावकों के घरों से सरस आहार लाकर खा रहा है जिससे जैनधर्म की निन्दा हो रही है। श्री संघ ने आपको बुलाने के लिये हम दोनों साधुओं को भेजा है अतः आप शीघ्र भरोंच पधारें । यह सुनकर सूरिजो भरोंच पधारे। जब भुवन ने पात्र को आज्ञा दी कि श्रावकों के घरों से मिष्टान्न आहार लाओ। तब पात्र आकाश में जा रहा था प्राचार्यश्री ने एक शिला + विक्रबी जिससे पात्र फूट टूट चकनाचूर हो गया। इसकी खबर भुवन को हुई तो वह भय भ्रान्त होकर वहां से भाग गया। बाद आचार्यश्री बौद्ध मंदिर में गये । बौद्धों ने कहा कि आप बुद्ध मूर्ति को नमस्कार करो । पर प्राचार्य श्री के विद्याबल के प्रभाव से बोद्ध मूर्ति तथा द्वार पर एक बुद्ध श्रावक की मूर्ति ने आकर सूरिजी के चरणों में नमस्कार किया बाद गुरू ने कहा अपने स्थान जाओ पर वे उठते समय कुछ अवनत रहे जिससे अद्यावधि वह बोध मंदिर निग्रन्थ नमित' नाम से प्रसिद्ध है।
महेन्द्रोपाध्याय-आप आचार्य खपटसूरि के शिष्य और महाविद्याभूषित थे एक समय पाटलीपुत्र नगर में दाहिड़ नामक राजा सत्यधर्म का नाश करता हुआ एक हुक्म निकाला कि सब धर्म वाले ब्राह्मणों के चरणों में नमस्कार करें अगर मेरी इस आज्ञा का कोई भी उल्लंघन करेगा तो उसको प्राणदण्ड दिया जायगा इस पर बहुत से लोग प्राण और धन की रक्षा के लिये ब्राह्मणों को नमस्कार करने लग गये पर जैन श्रमणों ने अपने धर्म की रक्षा के लिये प्राणों की कुछ भी परवाह नहीं की और कहने लगे कि राजा का कितना अन्याय -कितनी धर्मान्धता कि त्यागियों का अपमान करवाने के लिये ही यह आज्ञा निकाली है कि तुम सभी ब्राह्मणों को नमस्कार करो । खैर, जैनों ने राजा से कुछ दिन की मुद्दत ले ली और दो विद्वान मुनियों को भरोंच नगर भेज कर श्राचार्य खपटसूरी को सब हाल कहला दिया और कहलाया कि महेन्द्रोपाध्याय को जल्दी से भिजवावें कि यहाँ के श्रीसंघ का संकट को दूर कर जैनधर्म की विजयपताका फहरावें। दोनों मुनि चलकर भरोंच आये और सूरिजी को सब हाल निवेदन कर दिया। सूरिजी ने अपने शिष्य महेन्द्र को दो कन्नर की कायें जो एक लाल दूसरी श्वेत थी अभिमंत्रित कर देदी और पाटलीपुत्र जाने के लिये रवाना कर दिया । क्रमशः महेन्द्रर्पि पाटलीपुत्र पधारे और राजसभा में जाकर
इतर व श्रीक्षेत्रात विद्वितयसागमत् । तेन सोचे प्रमो प्रेषीत्संघो नौ भवदन्ति के॥१६॥ x--तत्प्रभावेण पात्राणि गणानि गगनाचना । भोज्य पूर्णान्युपायान्ति बौद्धोपासक वेश्मनः ॥१७३॥ +-पूर्णानि तानि भोज्या मायन्ति गगनाध्यना । गुरभि, कृतयादश्यशिलया योनि पुस्फुटुः ॥१७७॥ + नगरी पाटलीपुत्र वृत्रारिपुरसप्रभम् । दालडो नाम गजास्ति मिथ्याष्टिनिकृष्टधीः ॥ १८४॥
विमृश्य गुरुभिः प्रोचे श्रीभार्यखपटप्रभोः । शिप्यानगीमहेन्द्रोऽस्ति सिद्धप्राभृतसंभृतः ॥१९२॥ प्र० च. आचार्य खपट सूरि )
४३३ Jain Educ International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org