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________________ वि० पू० १२ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास शास्त्रों के मर्मज्ञ एवं अनेक विद्याओं से विभूषित थे। उनकी बुद्धि इतनी प्रबल थी कि कोई भी ज्ञान एक बार सुन लेते तो वह सदैव के लिये कण्ठस्थ ही हो जाता । गुडशस्त्र नगर से चल कर एक बोधाचार्य भरोंच नगर में आया था उसके साथ मुनि भुवन का धर्म के विषय शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें बोधाचार्य को पराजित कर शासन की खूब ही प्रभावना की । बोधाचार्य इतना लज्जित हो गया कि वह कहीं पर जाकर मुंह दिखाने काबिल ही नहीं रहा । अतः उसने भरोंच में भन्न जल का त्याग कर दिया, आखिर वह मर कर यक्ष योनि में उत्पन्न हुआ और गुडशस्त्र नगर में अकार लोगों को उपद्रव करने लगा अतः लोगों ने उसकी मूर्ति स्थापित की जब जाकर यक्ष शान्त हुआ। बाद पूर्व द्वष के कारण यक्ष जैनश्रमणों को उपसर्ग करने लगा इससे दुःखी हुये संध ने दो मुनियों को भेज कर श्राचार्य खपटसूरि से कहलाया कि यहां का यक्ष जैन संघ को बहुत दुःख देता है अतः श्राप जल्दी से यहां पधार कर श्रीसंघ के दुःख को दूर कर शांति करावें । इस पर प्राचार्य श्री ने मुनि भुवन को बुला कर कहा कि मैं गुडशस्त्र नगर जाता हूँ पीछे तुम इस खोपड़ी को भूल चूक कर भी उघाड़ कर नहीं देखना । इतना कहकर प्राचार्यश्री तो विहार कर गुडशस्त्र नगर में पधार गये और सीधे ही यक्ष के मंदिर में जाकर यक्ष के कान पर पैर रख कपड़ा से शरीर आच्छादित कर सो गये। जब पुजारी यक्ष की पूजा करने को आया तो आचार्य को सोता हुआ देख दूर हटने के लिये बहुत कहा पर उसने एक भी नहीं सुनी । तब पुजारी ने राजा के पास जाकर सब हाल निवेदन किया तो राजा ने क्रोधित हो हुक्म दिया कि लकड़ी लाठी एवं पत्थरों से मार कर सेबड़ा को हटा दो। पुजारी ने ऐसा ही किया पर प्राचार्य को तो इस बात की परवाह ही नहीं । इसका नतीजा यह हुआ कि पुजारी ने जितने लाठी लकड़ी पत्थर चलाये वे सब राजा के अन्तेवर की रानियों पर ही मार पड़ने लगी अतः अन्तेवर गृह में हाहाकार मच गया और रानियों ने पुकार की कि हमारी रक्षा करो ! रक्षा करो इत्यादि यह समाचार राजा के पास आया तब जाकर राजा ने सोचा कि यक्षालय में सोने वाला कोई सिद्ध पुरुष होगा ऐसा सोचकर राजा अपने सब परिवार को लेकर यक्ष मंदिर में आया और भक्तिपूर्वक आचार्य देव को वन्दन कर शान्त होने की प्रार्थना की तथा नगर में पधारने के लिए आग्रह किया इस पर आचार्य श्री ने यक्ष को कहा चलो मेरे साथ तथा और भी देव मूर्तियां सूरिजी के साथ हो गई इतना ही क्यों पर वहाँ दो पत्थर की बड़ी कुड़ियें थीं वह भी सूरिजी के पीछे चल रही थी इस तरह से सुरिजी ने नगर प्रवेश किया जिसको देखकर राजा एवं प्रजा जनधर्म के एवं सूरिजी २-तत्रार्य खपटा नाम सूरयो विद्यतो (यो) दिताः । तेषां च भागिनेयोऽस्ति विनेयो भवनाभिधाः ॥१४६॥ कर्णश्रुत्याप्यसौ प्राज्ञो विद्यां जग्राह सर्वतः । बौद्धान्वादे पराजित्य यैस्तीर्थ संघ साक्षिकम् ॥१४॥ तदा च सौगताचार्य एको बहुकराभिधः । गुडशस्त्रपुरात्प्राप्तो जिगीपुर्जेनशासनम् ॥१५०॥ सर्वानित्य प्रवादी स चतुरंग सभापुरः । जैनाचार्यस्य शिष्येण जितः स्याद्वादधदिना ॥१५॥ -तैराख्याते पुनः क्रुद्धो नृपस्तं लेष्टुयष्टिभिः । अधातयत्स घातानां प्रवृत्तिमपि वेत्ति नः ॥ ५९॥ क्षणेन तुमुलो जज्ञे पुरेऽप्यन्तः पुरेऽपि च । पुत्कुर्वन्तः समाजग्मुः सौविदाअवदंस्तथा ॥१६॥ रक्ष रक्ष प्रभो न्यक्षः शुद्धान्तो लेष्टुयष्टिभिः । अदृष्टविहितें : कैश्चित् प्रहारैर्जर्जरीकृतः ॥१६॥ -चाल्यं नरसहस्रेण तत्र द्रोणीद्वयं तथा । चालितं कौतुकेनेत्थं तत्प्रवेशोत्सवो ऽभवत् ॥१६६॥ तत्प्रभावामृतं वीक्ष्य जनेशोऽपि जनोपि च । जिनशासनभक्तोऽभून्महिमानं च निर्ममे ॥१६७॥ प्रभाविक चरित्र Jain E४३ International श्री वीर परम्पराamelibrary.org. For Private & Personal Use Only
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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