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________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ३८८ पूर्व की ओर बहती है । इसके पीछे भी राजा का गुप्तचर गया था जिससे राजा ने दोनों का हाल जान लिया और सूरिजी के कहने पर दृढ़ विश्वास हो गया । पादलिप्तसूरि एक समय मथुरा में सुपार्श्वनाथ के दर्शन कर कारपुर पधारे वहाँ के राजा भीम ने सूरिजी का अच्छा सत्कार किया । सूरिजी के उपदेश से वहाँ का राजा भी जैनधर्मी बन गया। श्राचार्य श्री शत्रुजय की यात्रा कर मानखेटपुर x पधारे वहाँ के राजा कृष्णराज को उपदेश देकर जैनधर्मोप.सक बनाया और राजा के आग्रह से श्राप वहाँ ही विराजते थे। वहाँ पर प्रांशुपुर से एक रुद्रदेवसूरि नामक आचार्य पधारे थे वे योनिप्रभृत शास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे एक समय अपने शिष्यों को उस शास्त्र की वाचना दे रहे थे उसको बाहर रहा हुआ धीवर ( मच्छीमार ) सुन रहा था। उसने उस विद्या एवं विधि को अच्छी तरह धारण कर ली कि जिससे माच्छला उत्पन्न कर सके। बाद दुकाल पड़ा, पानी के अभाव माच्छला नहीं मिले तो उस धीवर ने योनिप्रभृत विद्या से माच्छला पैदा कर दुकाल में अपने कुटुम्ब का पालन किया । बाद फिर गुरू के दर्शन किये धीवर ने अपनी सारी बात कह कर उपकार माना । इस पर प्राचार्य श्री को बड़ा भारी पश्चाताप करना पड़ा कि मैने उपयोग नहीं रखा जिससे इतने जीवों की हिंसा हुई : फिर धीवर को उपदेश दिया कि मैं तुझे रत्न बनाने की विद्या बता सकता हूँ पर माच्छला बनाना या मांस खाने का त्याग करना पड़ेगा । धीवर ने कहा पूज्य ! जब मेरा गुजारा हो जाय तो इस लोक और परलोक में निन्दनीय कार्य मैं कदापि नहीं करूंगा । आचार्य महाराज ने उस धीवर को रन बनाने की विद्या सिखा कर उसको पाप से बचाया। श्रमणसिंहमूरि-विलास १ पुर नगर में प्रजापति राजा राज करता था उस समय श्रमणसिंहसूरि वहां पधारे। राजा ने कहा कि आप ज्ञानी हैं कुछ चमत्कार बतलावें। इस पर सूरिजी ने कई प्रकार के चमत्कार बतला कर राजा को जैनधर्म की शिक्षा दीक्षा दी जिससे जैनधर्म की अच्छी प्रभावना हुई। __आचार्य खपटसरि-आप विद्या निपुण जैनशासन के एक चमकते सितारे थे। आपका चरित्र अलौकिक एवं चमत्कारों से ओतप्रोत है और पढ़ने वाले भव्यों को आनन्द का देनेवाला है। आपने एक विशुद्ध राजवंश में उत्पन्न हो जैनधर्म की दीक्षा ग्रहण कर अनेक शास्त्रों का अभ्यास किया अतएव श्राप तात्विक दार्शनिक एवं विद्या मंत्रादि शास्त्रों में बड़े ही धुरन्धर विद्वान थे। अपनी अलौकिक प्रभा का प्रभाव कई राजा महाराजा एवं वादी प्रतिवादियों पर डालते हुए भूमि पर भ्रमण करते थे। एक समय आप भरोंच नगर में विराजमान थे जहां बीसवें तीर्थङ्कर भगवान मुनि सुत्रत का तीर्थ था और कालकाचार्य का भानेज वलमित्र गजा राज करता था वह कट्टर जैन और आचार्यश्री का परम भक्त था । आचार्य खपटसूरि के एक शिष्य भुवनमुनिर जो आपके संसार पक्ष में भानेज लगते थे वह भी * ततोऽसौ लाटदेशांतश्चोङ्काराख्यपुरे प्रभुः। आगतः स्वागतान्यस्य तत्राधानीमभूपतिः ॥ ९ ॥ ४ मानखेटपुरं प्राप्ताः कृष्णाभूपालरक्षितम् । प्रभवः पादलिताख्य राज्ञाभ्यच्यंत भक्तितः ॥११॥ तत्र प्रांशुपुरात्प्राप्ताः श्रीरुद्रदेवसूरयः । ते चावबुद्धतत्वार्थाः श्रीयोनिप्राभूते श्रुते ॥११५॥ अन्यद्य निजाशिष्याणां परस्तस्माच शास्त्रतः । व्याख्याता शफरोत्पत्तिः पाप सन्तापसाधिका ॥११६॥ १-विलास नगरे पूर्व प्रजापतिरभूत्ततः । ततः श्रमणसिंहाण्याः सूरयश्च समाययुः ॥१२९॥ Jain Eduआचार्य खपट सूरि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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