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________________ वि० पू० १२ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आचार्यश्री के गुरुभाई संग्रामसिंहसूरि थे उनको आज्ञा दी अतः उन्होंने नागेन्द्रकुमार को दीक्षा दी और मण्डन नाम के मुनि को उसकी सेवा शुश्रूषा एवं पढ़ाई का कार्य सोपा आखिर नागेन्द्रमुनि थोड़े ही समय में ज्ञानाभ्यास करके धुरन्धर विद्वान हो गया । एक समय आचार्यश्री ने नागेन्द्र को कांजी का पानी लाने के लिए भेजा । वह पानी लेकर वापिस आया तो एक गाथा कह कर पानी देने वाली का वर्णन किया। "अंबं तंवच्छीए अपुफियं फुप्फ दंत पंतीय नय सालकंजियं नव बहूईकुडूराणनेदिन्तं" अर्थ- लाल वस्त्रवाली अभी ऋतु न हुई पुष्प सदृश्य दंत पंक्ति वाली ऐसी नव वधू ने बड़े ही प्रमोद से मुझे नये चावलों की कांजी का दान दिया है। इस श्रृंगार रस गर्भित गाथा को सुन कर गुरु ने कहा पलित्तओ" तू राग अग्नि में प्रदीत है इस पर मुनि नागेन्द्र ने कहा कि गुरुवर्य । एक मात्रा की और कृपा करें कि मैं “पालित्तो " हो जाऊँ। इसका भाव यह है कि:---"गगन गमनोपायभता पादलेप विद्यां मेदत् येनाहं पादलिप्तक, इतिभिदिये ततो गुरुभि पादलेप विद्या दता अर्थात् गुरु ने नागेन्द्र को पादलेप विद्या प्रदान कर दी कि जिससे वह पैरों पर लेप करके आकाश में जहाँ इच्छा करे वहाँ ही चला जावे। जब मुनि नागेन्द्र दसवर्ष के का हो गया तो उनको सर्वगुण सम्पन्न्न समझकर आचार्य पद से विभूषित कर दिया और उनका नाम पादलिप्तसूरि रख दिया। गुरु आज्ञा से बालाचार्य पादलिप्त सूरि विहार कर मथुरा पधारे । वहां की जनता को अपने ज्ञान से रंजित बनाकर आप पाटलीपुत्र नगर में पधारे । उस समय पाटलीपुत्र नगर में मुरंड नाम का राजा राज करता था । पादलिप्तसूरि के चमत्कार एवं उपदेश से राजा जैन धर्म को स्वीकार कर आचार्यश्री का परम भक्त बन गया। ___एक समय राजा मुरंड ने सुरिजी से पूछा कि पूज्यवर ! हम लोग प्रधान वगैरह को अच्छा वेतन देते हैं फिर भी वे बराबर काम नहीं करते हैं तो आपके साधु बिना वेतन आपका कार्य कैसे करते होंगे ? सूरिजी ने कहा तुम्हारे प्राधानादि स्वार्थ के वश नौकरी करते हैं पर हमारे शिष्य परमार्थ के लिए हमारी आज्ञा का पालन करते हैं । फिर एक नवदीक्षित शिष्य की परीक्षा की और इस परीक्षा के लिए राजा ने अपने मुख्य प्रधान बुला के कहा कि गंगा की धार किस ओर मुंह करके बहती है इसकी पक्की निगाह कर खबर लाओ। प्रधान ने सोचा कि बालाचार्य की संगत करने से राजा भी बाल भाव को प्राप्त होकर व्यर्थ ही कष्ट दे रहा है। यह बात तो बालक भी जानता है कि गंगा पूर्व की ओर बह रही है। बस प्रधान अपने भोग विलासादि कार्य में लग गया, राजा ने अपने गुप्तचरों को प्रधान के पीछे भेज दिया । वाद २-४ घंटा से आकर राजा को कह दिया कि मैंने पूरी निगाह करली है कि गंगा पूर्व मुंह कर बहती है। राजा के गुप्तचर ने मंत्री का सब हाल राजा से कह दिया। बाद सूरिजी ने अपने एक शिष्य को भेजा कि निगाह करो कि गंगा किस ओर बहती है ? शिष्य ने गुरु आज्ञा पालन करने को गंगा पर जाकर २-४ आदमियों से पूछ कर तपास की तथा आप स्वयं गंगा में दंडा रख निर्णय किया और गुरु के पास आकर कहा कि गंगा इत्यसौ दशमे वर्षे गुरुभिगुरुगौरवात् । प्रत्यष्ठाप्यत पट्टे स्वे कषपट्ट' प्रभावताम् ॥४२॥ +दिनानि कतिचित्तत्र स्थित्वासौ पाटलीपुरे । जगाम तत्र राजास्ति मुरन्डो नाम विश्रु तः॥४४॥ श्री वीर पररपरा Jain E४३० International For Private & Personal Use Only ww.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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