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वि० पू० १२ वर्ष 1
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
दी थी इसी प्रकार कालकाचार्य ने भी गर्दभिल्ल को उसके अन्याय की सजा दिलवाई थी । अतः श्राज जैनसाध्वियां निर्भयता पूर्वक तपसंयम की आराधना करती हैं, यह कालकाचार्य के प्रकाण्ड प्रभाव का ही फल है कि गर्दभिल्ल के बाद आज पर्यन्त ऐसी कोई दुर्घटना नहीं बनी है।
गर्दभिल्ल के चले जाने पर शकों ने उज्जैन पर अपना अधिकार जमा लिया। जिसके यहाँ कालकाचार्य ठहरे थे उसको उज्जैन का राजा तथा दूसरे ९५ मण्डलिकों को छोटे बड़े ९५ प्रदेशों के राजा बना दिये । उस दिन से भारत में शकों का राज जम गया पर शक ६ भागों में विभाजित होने से उनका बल कमजोर पड़ गया वे केवल ४ वर्ष ही उज्जैन में राज कर सके बाद भरोंच के बलमित्र और भानुमित्र ने शकों से उज्जैन का राज छीन कर अपने अधिकार में कर लिया, फिर भी शक भारत से निकल नहीं गये पर उनका जोर दक्षिण भारत की ओर बढ़ता गया, यहाँ तक कि उन्होंने विक्रम के बाद ५३५ वर्ष व्यतीत होने पर अपना संवत् चलाया जिसका आज पर्यन्त दक्षिण भारत की ओर अधिक प्रचार है ।
एक समय कालकाचार्य भ्रमण करते अपने शिष्यों के साथ भरोंच नगर के उद्यान में पधारे । वहाँ पर बलमित्र भानुमित्र राजा राज करते थे जो कालकाचार्य के भानजे लगते थे । उन्होंने बड़े ही महोत्सव के साथ सूरिजी का नगर प्रबेश करवाया । सूरिजी का व्याख्यान हमेशा होता था, श्रोताजन उपदेशामृत का पान कर अपनी आत्मा का कल्याण करते थे
राजा के एक पुरोहित था वह महा मिथ्या दृष्टि और जैनधर्म का कट्टर शत्रु था पर कालकाचार्य ने वाद-विवाद में उसको पराजित कर दिया था अतः वह अन्दर से द्वेषी पर ऊपर से आचार्य श्री का भक्त बनकर रहता था । राजा के आग्रह से कालकाचार्य ने वहाँ चतुर्मास कर दिया था पर यह बात पुरोहित को अच्छी नहीं लगती थी, उसने एक दिन राजा से कहा कि अपने आचार्य परमपूजनीय हैं इनकी पादुका अपने शिर पर रहनी चाहिये पर जब आचार्यश्री नगर में गमनागमन करते हैं तब इनके पैरों के प्रतिबिंब पर हलके से हलका आदमी पैर रखकर चलता है, यह बड़ा भारी पाप है । राजा ने सरल स्वभाव के कारण पुरोहित की बात को मान लिया पर चतुर्मास में आचार्य श्री को कैसे निकाल दिया जाय यह बड़ा भारी सवाल पैदा हो गया। इसके लिए पुरोहित ने कहा कि इसका सीधा उपाय है कि सब नगर में कहला दिया जाय कि आचार्य को मिष्टान्नादि भोजन करके बहराया करें अतः अनेषनीक आहार के कारण आचार्य स्वयं चले जायगे तो अपन, आशातना से बच जायगे। बस, राजा ने आर्डर दे दिया और पुरोहित ने नागरिकों से कह दिया । जब साधु भिक्षा को जाय तो सर्वत्र मिष्टान्नादि आहार मिलने लगा। प्राचार्यश्री को मालूम हुआ तो उन्होंने आधाकर्मी दोष जानकर वहां से बिहार करने का निश्चय कर लिया। अतः दो साधुओं को प्रतिष्ठनपुर भेजकर राजा को कहला दिया, राजा ने खुश होकर स्वीकार कर लिया। जब कालकाचार्य प्रतिष्ठनपुर पधारे तो वहाँ के राजा प्रजा ने आपका खूब ही सत्कार किया।
-सा मूर्ध्नि गई भिल्लस्य कृत्वा विषमूत्र मीय॑या । हत्वा च पादघातेन रोषेणान्तर्दधे खरी ॥७९॥
अवलोयमिति ख्यापयित्वा तेषां पुरो गुरुः । समग्रसैन्यमानीयमानीता दुर्गमाविशत् ॥१०॥
पातयित्वा तो बद्धा प्रपात्य च गुरोः पुर । गर्दभिल्लो भटैमुक्तः प्राह तं कालको गुरुः ॥८॥ २-~-आरोपिता व्रते साध्बी गुरुणाथ सरस्वती। आलोचित प्रतिक्रान्ता गुणश्रेणिमवाप च ॥८७॥
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