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________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ३८८ ___ आचार्यश्री का व्याख्यान हमेशा होता था जिसमें मनुष्य जन्म की दुर्लभता राज ऋद्धि की चंचलता आयुष्य की अस्थिरतादि समझा कर धर्माराधन की ओर जनता का चित्त आकर्षित किया जाता था। आपके व्याख्यान का प्रभाव पेवल साधारण जनता पर ही नहीं पर वहां के राजा सातबाहन पर भी खूब अच्छा पड़ता था । यही कारण था कि राजा जैनधर्म का अनुयायी बन गया। जब पर्वपर्युषण के दिन नजदीक आये तो राजा ने पूछा कि प्रभो ! खास पर्युषण का दिन कौन सा है कि जिस दिन धर्म कार्य किया जाय ? सूरिजी ने कहा कि भाद्रपद शुक्ल पंचमी को सांवत्सरिक पर्व है उस दिन पौषध प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिये । इस पर राजा ने कहा कि भाद्रपद शुक्ल पंचमी का हमारे यहां इन्द्र महोत्सव होता है और राजनीति के अनुसार मुझे वहां उपस्थित होना भी जरूरी है । अतः आप सांवत्सरिक पर्व को एक दिन पहिले या पीछे रख दें कि मेरे धर्म करनी बन सके । इस पर सूरिजी ने सोचा कि शास्त्रों में एक दिन पहिले तो पर्वाराधन हो सकता है पर बाद में नहीं होता है अतः लाभालाभ का विचार करके भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी२ को सांवत्सरिक पर्वाराधन का निश्चय कर दिया इससे राजा प्रजा सबको सुविधा हो गई । भविष्य के लिए सूरिजी ने सोचा कि राजा के इन्द्र-महोत्सव तो वर्षा वर्षी होता है और इस कारण जैसे राजा को समय नहीं मिलेगा वैसे गजकर्मचारी एवं नागरिकों को भी समय नहीं मिलेगा । यही बात दूसरे नगरों के राजा प्रजा के लिए होगी, तो यह सब लोग पर्वाराधन से वंचित रह जायेंगे । अतः हमेशा के लिए सांवत्सरिक की चतुर्थी की जाय तो अच्छा है। अनुमान लगाया जा सकता है कि कालकाचार्य का उस समय समाज पर कितना प्रभाव था कि उन्होंने एक बिलकुल नया विधान करके सम्पूर्ण समाज से मंजूर करवा लिया । यह कोई साधारण बात नहीं थी। उस समय का समाज दो विभागों में विभक्त था। एक आर्य महागिरि की शाखा में तब दूसरा आर्य सुहस्ती की शाखा में पर कालकाचार्य का विधान ( चतुर्थी के सांवत्सरी ) सबने शिरोधार्य कर लिया था और वह विधान कई ११००-१२ : ० वर्षों तक एक ही रूप में चलता रहा था। प्रबन्धकारने कालकाचार्य का चतुर्मास भरोंच में लिखा है तब निशीथ चूर्णी में उज्जैन में लिखा है और उज्जैन से ही प्रतिष्ठनपुर जाकर पंचमी के बदले चतुर्थी की सांवत्सरी की थी। शायद इसका कारण यह हो कि बलमित्र और भानुमित्र भरोंच के राजा थे और उन्होंने ५२ वर्ष तक भरोंच में राज किया था तथा पिछली अवस्था में केवल ८ वर्ष उज्जैन में राज किया था इस कारण वे भरोंच के राजा के नाम से ही प्रसिद्ध थे अतः प्रबन्धकार ने भरोंच में चतुर्मास करना लिम्ब दिया होगा पर वास्तव में कालकाचार्य का चतुर्मास उज्जैन में ही था और वहाँ से चतुर्मास में प्रतिष्ठनपुर जाकर पंचमी के बदले चतुर्थी की सांवत्सरी की थी। . कालकाचार्य के साथ एक अविनीत शिष्यों की घटना ऐसी घटी थी। कि कालदोष से कालकाचार्य के शिष्य अविनीत एवं प्राचार में शिथिल हो गये थे । बार बार शिक्षा देने पर भी उन्होंने अपने प्रमाद का त्याग नहीं किया इस पर प्राचार्यश्री ने सोचा कि ऐसे अविनीत साधुओं के साथ रहना केवल कर्मबन्ध का कारण है । अतः आपने शय्यातर१ को कह दिया कि मैं इन शिष्यों के अविनीतपने के कारण यहाँ से जा १-नगरे डिण्डिमो वाद्यः सर्वत्र स्वामिपूजिताः । प्रतिलान्या वराहारगुरवो राजशासनात् ॥ १०९॥ २-राजावदच्चतुर्थ्यां तत्पर्वपर्युषणं ततः । इस्थमस्तु गुरुः प्राह पूर्वरप्यास्तं ह्यदः ॥१२॥ चतुर्थी की संवत्सरी ४२७ Jain Education For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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