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________________ वि० पू० १२ वर्ष [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास रहा हूँ । बन सकेतो तू इनको हितशिक्षा देना । वस, इतना कहकर सूरिजी तो विहार करके प्रबन्धकार के मत से कालकाचार्य विशाला अर्थात् उज्जैन गये थे पर गये किस प्राम से यह नहीं बतलाया परन्तु निशीथ चूर्णीकार लिखते हैं कि "उज्जैणी कालखमणा सागर खमणा सुवर्ण भूमिसु" अर्थात् उज्जैन नगरी में कालकाचार्य रहते थे और वहां से चल कर सुवर्णभूमि में रहने वाले सागरसूरि के उपाश्रय गये थे। सागरसूरि कालकाचार्य के शिष्य का शिष्य था। कालकाचार्य सुवर्णभूमि में सागरसूरि२ के उपाश्रय गये, उस समय सागरसूरि व्याख्यान पीठ पर बैठा था, कालकाचार्य को नहीं पहिचाना अतः वन्दन व्यवहारादि भी नहीं किया । इस हालत में उपाश्रय के एक जीर्ण विभाग में जाकर कालकाचार्य परमेष्ठी का ध्यान लगा कर बैठ गये। जब व्याख्यान समाप्त हुआ तो सागरसूरि ने कालकाचार्य के पास आकर कहा कि हे तपोनिधि! आपको कुछ पूछना हो तो पूछो,मैंआपके मनके संशय को दूर करूंगा इस पर सूरि ने कहा कि मैं वृद्धावस्था के कारण आपके कहने को ठीक समझ नहीं पाया हूँ तथापि मैं आपसे पूछता हूँ कि अष्ट पुष्पी का क्या अर्थ होता है ? सागरसूरि ने गर्व में आकर यथार्थ तो नहीं पर कुछ अटम् पटम् अर्थ कह सुनाया जिससे कालकाचार्य ने सागर सूरि की परीक्षा कर ली इधर उज्जैन में सुबह गुरू को नहीं देखने से अविनीत शिष्य घबराये कि अपने कारण गुरू अकेले ही चले गये जब उन्होंने शय्यातर को पूछा तो उन्होंने सब हाल कह दिया । इस हालत में वे शिष्य भी वहाँ से विहार कर सुवर्णभूमि की ओर आये जब उन्होंने सागरचन्द्रसूरि के उपाश्रय जाकर पूछा कि क्या यहाँ गुरू महाराज पधारे हैं ? उसने कहा कि एक वृद्ध तपस्वी के अलावा यहाँ कोई नहीं आया है । साधुओं ने कहा अरे वह वृद्ध तपस्वी ही गुरुदेव हैं । सब साधुओं ने आकर सूरिजी को वन्दन किया जिसको देखकर सागरचन्द्रसूरि लज्जित हो गया और दादागुरु को वन्दन कर अपने अपराध की क्षमा मांगी। कालकाचार्य ने सागरचन्द्रसूरि से कहा कि तुमको ज्ञान का इतना घमंड किस लिये है । कारण तीर्थङ्करों का ज्ञान अनंत है जिसके अनन्तवें भाग गणधरों ने प्रन्थित किया है जिसका क्रमशः षट्स्थान न्यून जम्बु प्रभव शय्यंभव आदि आचार्यों को ज्ञान रहा । इतना ही क्यों पर जितना ज्ञान मुझे है उतना मेरे शिष्यों में नहीं और उनमें है उतना तेरे में नहीं और तेरे में है उतना तेरे शिष्यों में न होगा, तो तू इतना गर्व क्यों रखता है ? जब तुमको अष्ट पुष्पी का भी पूर्ण ज्ञान नहीं है तो गर्व किस बात का है । ले मैं तुमको अष्ट पुष्पी२ का अर्थ बतलाता हूँ "अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य अपरिग्रह रागद्वेषत्याग १- अन्येधुः कर्मदोषेण सूरीणां तादृशामपि । आसन्न विनयाः शिष्या दुर्गतौ दोहदप्रदा ॥१२९॥ अथ शय्यातरं प्राडुः सूरयो वितथं वचः । कर्मबन्ध निषेधाय यास्यामो वयमन्यतः ॥१३॥ त्वया कथ्यममीषां च प्रियकर्कश वाग्भरै । शिक्षयित्वा विशालायां प्रशिष्यान्ते ययौ गुरुः ॥१३॥ २–प्रशिष्यः सागरः सूरिस्तत्र व्याख्याति चागमम् । तेन नो विनयः सूरेरम्युत्थानादि को दधे ॥१३॥ तत ईयां प्रतिक्रम्य कोणे कुत्रापि निर्जने । परमेष्टिपरावत कुर्वस्तस्थावसङ्ग धीः ॥१३९॥ १-श्रीसुधर्मा ततो जम्बूः श्रुतकेवलिनस्ततः । षटस्थाने पतितास्ते च श्रुते हीनत्वमाययुः ॥१४७॥ २-अष्टपुष्पी च तत्पृष्टः प्रभुाख्यानयत्तदा । अहिंसासूनृतास्तेय ब्रह्माकिंचनता तथा ॥१५०॥ रागद्वषापरित्यागो धर्मध्यानं च सप्तमम् । शुक्लध्याज्ञानमष्टमं च पुष्पैरात्मार्चनाच्छिवम् ॥१५॥ प्रभाविक चरित्र Jain E 8 ? international For Private & Personal Use Only श्री वीर परम्पराmary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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