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वि० सं० २८२-२९८ वर्षं ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
कई भवों के कर्म रूप रोग को मिटा कर मोक्ष रूप अक्षय आरोग्यता प्रदान करता है । हम साधुओं के क्या काम होता है यदि तुम्हारी इच्छा हो तो यह पुनीत तीर्थश्रीशत्रुंजय है इसकी सेवा भक्ति कर सुलभ बोधित्व उपार्जन करो ! देवने सूरिजी के हुक्म को स्वीकार कर लिया और सूरिजी ने कदर्पि यक्ष को शत्रुजय के धिष्ठायक पने स्थापन कर दिया इति कदर्पि यक्ष का सम्बन्ध !
१५ – आचार्य चन्द्रसूरि - आप श्री का वर्णन आचार्य यक्षदेवसूरि तथा आर्य बज्रसेनसूरि के जीवन
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चुका है कि आप सोपरपट्टन के उकेसिय गोत्र के जिनदास सेठ की ईश्वरी सेठानी के अनेक पुत्रों में एक होनहार भाग्यशाली पुत्र थे ! दुकाल के अन्त आप अपने नागेन्द्र निर्वृति और विद्याधर भ्राताओं के साथ बानसूर के कर कमलों से दीक्षित हुए थे सोपारपट्टन में आचार्य यक्षदेवसूरि के पास ज्ञानाभ्यास कर रहे थे । अकस्मात् वज्रसेनसूरि का स्वर्गवास होगया । आचार्य यक्षदेवसूरि ने आपको पूर्वी एवं अंगों का अध्ययन करवा कर सूरि पद प्रदान किया था । आप बड़े ही प्रतिभाशाली एवं जैन शासन के प्रभाविक पुरुष
आपका बिहार क्षेत्र कांकरण सौराष्ट्र श्रावंती मेदपाट और मरुधर प्रान्त तक था आपके शिष्यों का समुदाय भी विशाल था आपका समय बड़ा ही त्रिकट था तथापि जैनधर्म का प्रचार के लिये आपने बहुत प्रयत्न किया था ! आपकी सन्तान चन्द्रकुल के नाम से ओलखाई जाति थी इस कुल मैं बड़े बड़े प्रभाविक श्राचार्य ! जिन्हों का हम आगे यथास्थान वर्णन करेंगे श्रापश्री ने श्राचार्य यक्षदेवसूरि का महान उपकार माना और उनके प्रभाव से ही आप इस स्थिति को प्राप्त हुए थे इत्यादि । १६ - श्री सामन्तभद्रसूरि -- आप आचार्य चन्द्रसूरि के पट्टधर थे आपका ज्ञान समुद्र के सहश अगम्य था । एकादशांग के अलावा आप कई पूर्वी के भी पाठी थे आपके निरतिचार चरित्र और कठोर तप का प्रभाव राजा महाराजा पर तो क्या पर कई देव देवियों पर भी पड़ता था आप नगरों की अपेक्षा वन उपवन एवं जंगलों में रहना विशेष पसन्द करते थे इनसे एक तो गृहस्थों का परिचय कम दूसरा उपाधि कम तीसरा ध्यान की सुविधा आसन समाधि योग साधना निर्विघ्न तय बन सकता था ! इत्यादि अनेक लाभ थे । आचार्य महागिरिजी से यह प्रवृति चली आ रही थी परन्तु बीच में कई भयंकर दुकाल के कारण अधिक
नगरों में रहना पसन्द कर लिया था तथापि जंगलों में रहने वाले भी बहुत मुमुक्षु उस समय विद्यमान थे । आपके शासन समय यह भी प्रवृति थी कि आचार्य अपने शिष्यों में जिसको योग्य समझते उनको गच्छ भार सुपर्द कर आप इस प्रकार जंगलों में रहकर अन्तिम सलेखना किया करते थे ! श्राचार्य सामन्तभद्र के पूर्व ही जैनशासन में दो समुदायें बन चुकी थीं श्वेताम्बर - दिगम्बर । आचार्य श्री ने इन दोनों को एक बनाने में खूब ही प्रयत्न किया परन्तु कलिकाल की क्रूरता के कारण आपका प्रयत्न सफल नहीं हुआ और दिन व दिन समुदायिकता बढ़ती ही गई ।
आचार्य श्री जंगलों में रहते हुए भी जन कल्याणार्थ कई ग्रंथों का भी निर्माण किया था जैसे आप्त मीमंसा यह एक न्याय का पूर्व ग्रंथ है तथा युवन्त्यानुशासन, स्वयंभूस्तोत्र, जिनस्तुति शतक' आदि कई ग्रंथ बनाये थे । सामन्तभद्राचार्य नामक एक प्राचार्य दिगम्बर समुदाय में भी हुये हैं इन दोनों आचार्य का समय भी मिलता भुलता ही है शायद श्राप जंगलों में रहने के कारण दोनों के सामन्तभद्र एकही हों अर्थात् सामन्त भद्राचार्य को दोनों समुदाय वाले समान दृष्टि से मानते हैं। पर सामन्तभद्रा के गुरु एवं शिष्य परम्परा जो श्वेताम्बर पट्टावलियों में लिखी है वह दिगम्बर से नहीं मिलती है अतः सामन्तभद्राचार्य श्वेताम्बर समुदाय
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[ आर्य्यचन्द्रसूरि और सामन्तभद्र
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