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________________ वि० सं० २८२-२९८ ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास के साथ विवाह करने का उल्लेख इतिहास में मिलता है और उनके पूर्व सम्राट चन्द्रगुप्त ने वहां एक राजमहल बना कर वर्ष में कई समय वहाँ व्यतीत करने का भी उल्लेख मिलता है अतः सम्राट् सम्प्रति ने अपनी राज धानी विदिशानगरी में बनाई हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। अब यह सवाल रह जाता है कि विदिशा नगरी में ऐसा क्या था कि उसको इतना महत्व दिया गया ? विदिशानगरी के चार नाम थे १ विदिशा, २ वेशनगर, ३ सांचीपुर, ४ भिल्ला । १- यह नगरी चार दिशाओं की अपेक्ष विदिशा में बसी है इससे विदिशा कही जाती है। २-यह नगरी वेश नदी के किनारे पर बसी है अतः वेशनगर कहा गया है । ३-इस नगरी के पास जैन स्तूपों का संग्रह-संचय होने से सांचीपुरी कही जाती है । ४-वर्तमान में वहाँ एक छोटासा ग्राम रह गया है अतः लोग उसे भिल्सा कहते हैं । एक तो विदिशानगरी में भगवान मह व र के मौजूदगी समय की मूर्ति जिसको जीवित मूर्त कही जाती है दूसरे वहाँ कई छोटे बड़े स्तूप हैं और कई लोग तो भगवान महावीर स्वामि का मोक्ष और शरीर का अग्नि संस्कार इसी स्थान में हुआ बतलाते हैं अतः यह जैनियों का पुनीत तीर्थधाम है और इस प्रकार तीर्थधाम होने से ही जैनाचार्य यात्रार्थ आते थे सम्राट चन्द्रगुप्त ने वहां अपने ठहरने को राजमहल करवाया सम्राट अशोक भी वहां आया था और सम्राट सम्प्रति तो अपनी राजधानी का नगर विदिशा को ही बना दिया था। इस विषय में अधिक टल्लेख हम स्तूप प्रकरण में करेंगे । यहां तो इतना ही कह देना उचित है कि विदिशा एवं साँचीपुर जैनों का तीर्थ धाम अवश्य था इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है। ऊपर हम लिख आये हैं कि श्रावंती प्रदेश के साथ जैनधर्म का घनिष्ट सम्बन्ध रहा है आवंती के सिंहासन पर विक्रम पूर्व छठी शताब्दी से विक्रम की चौथी शताब्दि सक के भिन्न २ वंश के राजाओं ने वहाँ राज किया है जिसमें थोड़ासा अपवाद छोड़ कर बे राजा जैनधर्म का पालन एवं प्रचार करने वाले ही थे इस विषय में विस्तृत वर्णन तो श्रीमान् त्रिभुवनदास लहेरचन्द शाह बड़ौदा वाले ने अपने प्राचीन भारतवर्ष के पांच भागों में किया है पर यहाँ स्थानाभाव में उन राजाओं की मात्र नामावली देदेता हूँ। ने० राजाओं के नाम समय कहाँ से कहाँ तक | गजकाल यह समय श्रीमान् शाह पुनिक ई० स० पूर्व ५९६-५७५ की पुस्तक अनुसार दिया गया है शायद इसमें चण्ड प्रद्योतन ५७५-५२७ अन्य लेखकों का मत भेद भी हो। पालक ५२७-५२० | दतिवर्धन ५२०-५०१ श्रावंतीसेन ५०१-४८७ मणिप्रभ ४८७-४६७ ७३५ (क) आवंति देश विदिशानगरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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