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[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
भवमें सुख की इच्छा करता है तो उसको धर्माराधन करना चाहिये, वरन् अधर्म से दुःख ही सहन करना पड़ेगा ५ । क्योंकि आम्रका बीज बोने से ही आम्र के फल मिलता है ७ परन्तु बंबुल के बीज बोने से आम्रके फल कभी नहीं मिलता है ६ । अतएव सुख का मूल धर्म ही है इन सब बातों में विवेक की जरूरत है । यदि विवेकवान पुरुष है तो इस संसार से पार होकर मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है और विवेकशून्य मनुष्य उल्टा संसार को बढ़ा देता है ८ । जीव अनादि काल से विषय कषाय श्रालस्य प्रमाद में ही खुशी एवं मग्न रहा यदि मोज शोक या मंत्रों से गोष्टी आदि कार्यों में तो खास कामों से भी समय निकाल देता है पर धर्म के लिये कई बहाना करके कहता है कि मुझे समय नहीं मिलता है । यह विवेक-हीनता भवान्तर में कैसे दुःखदाई होगी ऐसे विचार कर धर्म के लिये खास तौर से समय निकाल कर धर्म की आराधना अवश्य करनी चाहिये । इत्यादि सूरीश्वरजी ने बड़ी ओजस्वी भाषा से धर्म देशना दी कि जिसको श्रवण कर उपस्थित श्रोतागण मन्त्रमुग्ध बन गये। कारण कि इस प्रकार का धर्म उन्होंने अपनी जिन्दगी भर में कभी नहीं सुना था, अतः लोग मन ही मन में सोचने लगे कि दुनिया में तरणतारण कहा जाय तो एक यही महात्मा और इनक कथन किया धर्म ही है क्योंकि इसमें स्वार्थ का तो अंशमात्र भी नहीं है, जो है वह परमार्थ के लिए ही है खेद और महाखेद है कि ऐसे महात्मा कई असों से यहां पर विराजमान हैं पर अपन हतभाग्यों जाकर कभी दर्शन तक भी नहीं किया हाय ! हाय !! एक अमूल्य रत्न को कांच का टुकड़ा समझ कर उनसे दूर रहना सिवाय मूर्खता के और क्या हो सकता है, पर अब गई बात के सोचने से क्या होता है ! अब तो इन महात्मा से प्रार्थना करनी चाहिए कि श्राप यहां विराजकर हम अज्ञानियों का उद्धार करावें इत्यादि सब लोग एक सम्मत होकर सूरीश्वरजी से प्रार्थना की।
हे प्रभो ! आज आपने व्याख्यान देकर हमारे अज्ञानरूपी पर्दे को चीर डाला है । हमारी आत्मा अज्ञानरूपी अन्धकार में गोता खा रही थी आपने सूर्य्य सा प्रकाश कर सद्मार्ग बतलाया है ।
० पू० ४०० वर्ष |
५ इच्छन्ति धर्मस्य फलं तु सर्वे कुर्वन्ति नामुं पुनरादरेण । नेच्छन्ति पापस्य फलं तु केऽपि कुर्वन्ति पापं तु महादरेण ॥ ६१ ॥ ६ इष्यन्त आम्रस्य फलानि चेत् तत् तद्रक्षणादि प्रविधेयमेव । एवं च लक्ष्म्यादिफलाय कार्यों कुर्वन्त्यबोधा नहि धर्मरक्षाम् ॥ ६२ ॥ ७ सुखस्य मूलं खलुधर्म एवच्छिन्न च मूले क्व फलोपलम्भः ।
आरूढ़ शाखा विनिकृन्तनं तद् यद् धर्म मुन्मुच्य सुखानुषङ्गः ।। ८ येनैव देहेन विवेक हीना, संसार बीजं परिपोषयन्ति । तेनैव देहेन विवेकभाजः संसार बीजं परिशोषयन्ति ॥ "वयस्यगोष्टीं विविधां विधातुं मिलेत् कथञ्चित् समयः सदापि । अल्पोऽवकाशोऽपि न शक्य लाभो देवस्य पूजा करणाय हन्त ॥ आत्मोन्नत्ति वास्तविकीं यदीयं समीहतेऽन्तकरण स मर्त्यः उपासनार्थ परमेश्वरस्य कथंचिदानोत्यवकाशमेव ॥
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