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________________ आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्ष हे करुणासिन्धो ! आपने केवल हमारे पुत्र को ही जीवन दान नहीं दिया है, पर हम सब लोग मिथ्यात्व समुद्र में डूब रहे थे, आज आप ने हाथ पकड़ कर हमारा उद्धार किया है। जिस धर्म को हम नास्तिक एवं अनीश्वरवादी धर्म समझते थे उसका आपने सत्यस्वरूप समझा कर हमारे चिरकाल के प्रम को जड़मूल से उखाड़ दिया है। आज हमको एक अमूल्य रत्न की भांति अपूर्व धर्म की प्राप्ति हुई है जिससे हम अपनी आत्मा को कृतार्थ होना समझते हैं । हे दयासागर ! हमारे शब्दकोष में ऐसा शब्द ही नहीं है कि हम आपके इस उपकार को शब्दों द्वारा ध्यक्त कर सकें, तथापि हमारी यही प्रार्थना है कि आप यहां विराजमान रहें और हम अज्ञात लोगों पर दयाभाव लाकर जैनधर्म की शिक्षा-दीक्षा देकर हमारा उद्धार करावे इत्यादि । ___ इस पर सूरीश्वरजी महाराज ने राजा मन्त्री और उपस्थित लोगों को सम्बोधन करते हुए कहा कि महानुभावो! इसमें तारीफ और प्रशंसा की क्या बात है ? क्योंकि मैंने जो धर्म देशना दी है इसमें अपने कर्तव्य पालन के अलावा कुछ भी अधिकता नहीं की है । यदि आपने सत्यधर्म को सत्य समझ लिया है तो इस पवित्र जैनधर्म को स्वीकार करने में अब आपको क्षण मात्र भी विलम्ब नहीं करना चाहिये । कारण; धर्म का कार्य शीघ्रातिशीघ्र ही करना चाहिये । बस, फिर तो देरी ही किस बात की थी। राजा प्रजा ने अपने गले के जनेऊ और कंठियें तोड़ तोड़कर सूरीश्वरजी के चरणों की ओर डाल दिये । बाद उन धर्मजिज्ञासु मुमुक्षुत्रों की उत्कंठा एवं उत्साह को देख कर सूरीश्वरजी ने सबसे पहिले इस भव या पूर्वभवों में मिथ्वात्वादि पाप कर्म के आचरण किये थे उन सबकी पालोचना करवाई, बाद सम्यक्त्व धारण करने में जो क्रिया विधान करवाना जरूरी था वह विधि विधान करवाने में प्रवृत्तमान हुए। जब जीवों के कल्याण का समय नजदीक आता है तब निमित्त कारण भी सदा अच्छे से अच्छे बन जाते हैं । इधर तो बड़े ही उत्साह के साथ विधि विधान हो रहा था। उधर जयध्वनि के नाद से गगन गूंज उठा । जनता आकाश की ओर ऊर्ध्व दृष्टि का प्रसार कर देखने लगी तो आकाश से कई विमान आते हुए दीख पड़े। उन विमानों के अन्दर कई तो विद्याधरों के विमान थे जो सूरीश्वरजी के दर्शनार्थ आ रहे थे और कई देवदेवांगनायें भी सूरीश्वरजी की भक्ति से प्रेरित होकर सूरिजी के चरण कमलों का सर्रा एवं वन्दन करने को भा रहे थे। जब उन आगन्तुकों ने देखा कि राजा प्रजा जो महामिथ्यात्व में फंसे हुये थे, सूरीश्वरजी के शिष्य बनने की तैयारी कर रहे हैं तो उनको बड़ा भारी हर्ष हुआ और उन्हें अन्यवाद दिया क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीवों को इससे अधिक क्या खुशी हो सकती है कि आज वे मिथ्यात्वी लोग सूरीश्वरजी के उपदेश से अपने स्वधर्मी बन रहे हैं । समयज्ञ देवी चक्रेश्वरी ने वासक्षेप का थाल लाकर सूरिजी महाराज के सामने रख दिया, सूरिजी ने समान विद्यादि से उनको अभिमंत्रित कर सबसे पहिले राजा उत्पलदेव के शिर पर डाला। उस समय मंत्री का सिर की पाग हाथों में लेकर सूरिजी से वासक्षेप की प्रार्थना कर रहा था। अतः सूरीश्वरजी Jain Education Intern al For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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