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________________ वि० पू० ४०० वर्षे ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास महाराज ने यथाक्रम उन राजा प्रजा पर ऋद्धि सिद्धि वृद्धि संयुक्त वासक्षेप डालकर करीबन सवा लक्ष क्षत्रियों को जैन धर्म में दीक्षित किये। तत्पश्चात उन नूतन जैनों एवं विद्याधर और देवदेवांगनाओं को थोड़ी पर सारगर्भित धर्मदेशना दी जिसका उपस्थित श्रोताओं पर अच्छा प्रभाव पड़ा । तत्पश्चात सभा विसर्जन हुई। अहा ! हा !! आज उकेशपुरनगर में सर्वत्र हर्ष छा गया है और घर २ में खुशियां मनाई जा रही हैं। जैनधर्म और आचार्य रत्नप्रभसूरिजी महाजाज की जयध्वनि से गगन गूंज उठा है। घर घर में धवल मंगल के गीत गाये जा रहे हैं । यह शुभ दिन था श्रावण वद १४ का। ____ जब कि इस वितीकार को वहां के मठधारी पाखंडियों ने देखा एवं सुना तो उन लोगों को बड़ा ही दुःख हुआ। क्यों न हों ? उनके हाथ की सबकी सब बाजी ही चली गई । अतः उन लोगों ने खूब हुल्लड़ मचाया । फिर भी उनका प्रयत्न सर्वथा निष्फल भी नहीं हुआ । मांस मदिरा एवं व्यभिचार के लोलुप शूद्रादि कई लोग उन पाखंडियों के पक्षकार बन उनके उपासक रह भी गये । अतः वे अपने पैर आगे बढ़ाने लगे। । एक दिन उन मठाधीशों के अग्रेसर सब लोग मिल कर राजा उत्पलदेव की राजसभा में आये और राजा को कहने लगे कि नरेन्द्र ! आप जानते हो कि कुल परम्परा से चले आये धर्म को बिना सोचे समझे एकदम छोड़ देने से जीवों की नरक गति होती है। यदि आपको ऐसा ही करना था तो पहिजे उन सेबड़ों का हमारे साथ शास्त्रार्थ तो कराना था कि विश्व में सच्चा धर्म कौन है और कौनसे धर्म के पालन करने से जीवों का कल्याण होता है इत्यादि । राजा ने कहा कि कुल परम्परा और धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है । क्या किसी परम्परा ने अन्याय अकृत्य किया हो तो उनकी संतान भी वही कार्य करती रहे ? केवल मैंने ही क्यों पर मेरे पितामह राजा जयसैन ने भी मिथ्या धर्म का त्याग कर जैनधर्म को स्वीकार किया था तो मैंने क्या अन्याय किया ? मैंने तो अपने पूर्वजों का ही अनुकरण किया है। इतना ही क्यों पर आपके और इन महात्माओं के धर्म को तुलनात्मक १आचार्य श्रीरत्नप्रभसरि वैशाखमास में उपकेशपुर नगर में पधारे थे वहां मासकल्प करके आसपास के प्रदेश में भ्रमण किया तथा वापिस उपकेशपुर पधारे। और चतुर्मास भी वहीं किया इस अर्से में मुनियों को कहीं पर भी शुद्धआहार पानी का जोग नहीं मिला था, अतः वे तपस्या करते ही रहे । उस कठोर तपश्चर्या और परोपकार के लिये हजारों कठिनाइयाँ सहन की थीं, उसका प्रभाव जनता पर पड़ने को ही था, परंतु इसमें कुछ निमित्त कारण की भी आवश्यकता अवश्य थी। बस, श्रावण कृष्णा १३ के दिन मंत्रीपुत्र को सांप का काटना और इस कार्या में देवी की प्रेरणा का होना । बस, सूरिजी ने समय को अनुलक्ष में रख कर एवं जनता को विश्वास दिलाने को इधर तो थोड़ा गरम पानी मंगवाकर अपने अंगुष्ठ प्रक्षालन का जल उस मृतप्राय मंत्रीपुत्र पर छिड़काया तो वह निर्विष हो गया, उधर दूसरे दिन राजाप्रजा को धर्म-देशना देकर उन सबको श्रावणकृष्णा १४ को जैन-धर्म की दीक्षा शिक्षा दी। उन राजा, मंत्री और क्षत्रियों की संख्या पट्टावलीकारों ने सवालक्ष की लिखी है । अतः इस उपकार के बदले में ओसवालों को चाहिये कि श्रावणकृष्णा १४ को अपनी समाज का जन्म-दिन समझ कर सर्वत्र महोत्सव मनोवें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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