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आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ]
[वि० पू० ४८० वर्ष
दृष्टि से खूब विवेचना एवं परीक्षा करके ही सत्यधर्म को स्वीकार किया है। दूसरे आप शास्त्रार्थ का व्यर्थ ही घमंड क्यों करते हो ? मेरे ख्याल से तो जैसे शेर के सामने गीदड़ और सूर्य के सामने दीपक कुछ गिनती में नहीं वैसे ही जैनधर्म के सामने आप हैं। यदि आपके दिल में इस बात का घमंड है वो अब भी क्या हुआ है, तैयार हो जाइये पर इस बात को पहिले सोच लीजिये कि कहीं इन रहे सहे शूद्र लोगों को भी न खो बैठे ? फिर भी उन पाखण्डी वाममागियों का अत्याग्रह होने से सत्य के उपासक महारजा उत्पलदेव एवं मंत्रीऊहड़देव ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर शास्त्रार्थ करवाने का निश्चय कर लिया और सूरीश्वरजी महाराज से प्रार्थना की, पर सूरिजी का तो यह काम ही था कि उपदेश एवं शास्त्रार्थ कर उन्मागे जाते हुए जीवों को सन्मार्ग पर लाना ।
राजा के आदेशानुसार ठीक समय पर सभा हुई और इधर से तो सूरीश्वरजी अपने शिष्य-मंडल के साथ सभा में पधारे एवं भूमिपर्माज्जन कर अपनी कंवली का आसन लगा कर विराज गये तथा उधर से वे पाखण्डी लोग भी खूब सजधज कर बड़े ही घमंड एवं आडम्बर के साथ आये ! जब पहले से ही सूरिजी महाराज भूमि पर विराजे थे तो उनको भी भूमि पर आसन लगाकर बेठना पड़ा। सभा-स्थान राजा प्रजा से खचाखच भर गया था शास्त्रार्थ सुनने की सबके दिल में उत्काण्ठा थी।
प्रश्न-वाममार्गियों ने कहा कि जैनधर्म नास्तिक धर्म है ?
उत्तर-सूरिजी ने कहा कि नास्तिक उसे कहा जाता है जो स्वर्ग, नरक, पुण्य, पाप आत्मा, कर्म, मोक्ष और ईश्वरादि तत्वों को न माने, पर जैनधर्म तो इन सब बातों को यथार्थ मानता है अतः जनधर्म नास्तिक नहीं पर कट्टर श्रास्तिक: धर्म है।
प्र०-जैनधर्म प्राचीन नहीं पर अर्वाचीन धर्म है।
30-शायद् इस प्रदेश में आपने अपनी जिन्दगी में जैनधर्म को अभी ही देखा होगा, फिर भी जैनधर्म अर्वाचीन नहीं पर प्राचीन धर्म है जिसके प्रमाण वेदों एवं पुराणों में मिलते हैं जिन वेदों को व्यासकृत एवं ईश्वरकृत कहा जाता है, उन वेदों के पूर्व मी जैनधर्म विद्यमान था तभी तो वेदों और पुराणों में जैनधर्म के विषय उल्लेख किया गया है।
प्र०-जैनधर्म ईश्वर, और ईश्वर को जगत का कर्ता नहीं मानता है।
उ०-ईश्वर को जिस आदर्श रूप में जैनधर्म मानता है । इस प्रकार शायद ही कोई दूसरा मत्त मानता हो, क्योंकि जैनधर्म ईश्वर को सच्चिदानन्द, आनन्दघन, निरंजन, निराकार, सकलोपाधिमुक्तः कैवल्यज्ञान, कैवल्य दर्शनादि, अनंतगुणसंयुक्त और स्वगुणभुक्ता, अनंतगुण ऐश्वर्य सहित को ही ईश्वर मानता है। हाँ, जैनधर्म का सिद्धान्त ईश्वर को जगत का कर्ता नहीं मानते हैं और यह है भी यथार्थ कारण, ईश्वर सकलकर्मोपाधी रहित होने से जगत के साथ उनका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है कि वे जगत् का कर्ता हर्ता १-आत्मास्ति कर्माऽस्ति परभवोऽस्ति मोक्षोऽस्ति तत्साधकहेतुरस्ति । इत्येवमन्तःकरणे विधेया दृढ़प्रतीतिः सुविचारणाभिः ।। परमैश्वर्य युक्तात्वाद मत्त आत्मैववेश्वर स च कर्तेति निर्दोषःकत विवादो व्यवस्थित ।
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