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________________ आचार्य रत्प्रभवरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्षे ... योग तीन प्रकार के हैं, मनयोग वचनयोग कायायोग । इनका निरोध करने को ही वास्तविक योग कहते हैं। इसका ही नाम मनोगुप्ति वचनगुप्ति कायगुप्ति हैं । इनके अलावा क्रियायोग, इच्छायोग शास्त्रयोग, समर्थ्य योग, राजयोग, सहजसमाधियोग, इत्यादि इनके भेद हैं। इन सब में अध्यात्मयोग जो जड़ चैतन्य को यथार्थ भावों में समझ कर चिन्तवन करना उस योग कोही कर्म निर्जरा का हेतु कहा जाता है । अध्यात्मयोग कार्य है और शेषयोग इनके कारण हैं इत्यादि खूब विवेचन करके समझाये। मैं तो आपको भी सलाह एवं खास तौर पर उपदेश देता हूँ कि आपको किन्हीं भावों के प्रबल पुन्योदय से मनुष्य जन्मादि उत्तम सामग्री मिल गई है इसको सफल बनाने के लिये धर्म आराधन करने में लग जाना चाहिए । क्योंकि संसार में परिभ्रमन करते हुए जीवों को एक धर्म का ही शरण है । यदि जिस प्राणी ने धर्म का आराधन नहीं किया वह सदैव दुःखी ही रहा है । संसाररूपी दावानल में जलते हुए जीवों के लिये धर्मरूपी उद्यान ही एक विश्राम का स्थान है । जिस माता पितादि कुटुम्ब के लिये अनर्थ किया जाता है वे दुःख भुक्तने के समय काम नही देंगा पर एक धर्म ही माता पिता है कि दुःख के समय रक्षा कर सकता है ३ । संसार में धन धान्य राज सम्पत्ति एवं यशः धर्म से ही मिलता है । यदि मनुष्य इस भव और पर शास्त्रादुपायान् विदुषो महर्षेः शास्त्राऽप्रसाध्यानुभवाधिरोहः । उत्कृष्ट सामर्थ्य तया भवेद् यः सामर्थ्य योगं तमुदाहरन्ति ॥ न सिद्धिसम्पादनहेतुभेदा सर्वेऽपि शास्त्राच्छकनीयबोधः। सर्वज्ञता तच्छृतितोऽन्यथा स्यात् तत्मातिभज्ञानगतः स योगः तत् प्रातिभं केवलबोधभानोः प्राग्वृत्तिकं स्यादरुणोदयाभम् । 'ऋतम्भरा' 'तारक' एवमादिनामानि तस्मिन्नवदन् परेऽपि । शुद्धाऽऽत्मतत्त्वं प्रविधाय लक्ष्यममूढ़ दृष्टया क्रियते यदेव । अध्यात्ममेतत् प्रवदन्ति तज्झा नचाऽन्यदस्मादपवर्गबीजम् ॥ The enlightened define Adhyatma as everything that is done clearly keeping in view (realisiog) the unsullied nature of soul. Nothing besides leads to salvation. "देवतापुरतो वाऽपि जले वाऽकलुषात्मनि । विशिष्ट द्रमकुंजे वा कर्त्तव्योऽयं सतां मतः" 'पवापलक्षितो यद्वा पुत्रंजीवकमालया। नासाग्रस्थितया दृष्टया प्रशान्तेनान्तरात्मना" ॥३८३॥ देखो यह तपस्वी साधु चार चार मास से भूखे प्यासे योगाभ्यास कर रहे हैं। १ अस्ति त्रिलोक्यामपि कः शरण्यो जीवस्य नानाविधदुःखभाजः । धर्मः शरण्योऽपि न सेव्यते चेद् दुःखप्रहाणं लभतां कुतस्त्यम् १ ॥५७॥ २ संसारदावानलदाहतप्त आत्मैष धर्मोपवनं श्रयेच्चेत् । क्व तर्हि दुःखानुभवावकाशः १ कीदृक् तमो भास्वति भासमाने ? ॥५८॥ ३ मातेव पुष्णाति पितेवपाति भ्रातेव च स्निह्यति मित्रवञ्च । पीणाति धर्मः परिषेवितस्तद् अनादरः साम्पतमस्य नैव ॥५९॥ ४ सौस्थ्यं धनित्वं प्रतिभा यशश्च लब्ध्वा सुखस्यानुभवं करोषि । यस्य प्रभावेण तमेव धर्ममुपेक्षमाणो नहि लजसे किम् ? ॥ ६० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only wwe orary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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