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वि० सं० ११५-१५७ वर्ष ]
[भगवान् पाश्यनाथ की परम्परा का इतिहास
के पास आया और भगवान को वन्दना न करता हु प्रा बोला कि आपके बहुत से साधु आपके पास से छदमस्थ जाते हैं और छदमस्थ आते हैं पर मैं केवली होकर गया और केवली होकर आया हूँ । इस पर भगवान ने कहा जमाली यदि तू केवली है तो बतला जीव शाश्वता है या अशाश्वता ? लोक शाश्वता हैं या अशाश्वता ? । बस इसके उत्तर देने में जमाली के दांत जुड़ गये। भगवान ने कहा कि इस प्रश्न के उत्तर तो मेरे सामान्य साधु भी दे सकते हैं तो क्या तू केवली होता हुआ भी इन साधारण प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकता है । आखिर जमाली ने अपना कदाग्रह नहीं छोड़ा और अपना अलग मत चला दिया । अतः भगवान को केवल ज्ञान होने के बाद १४ वां वर्ष में जमाली नाम का प्रथम निन्हव हुआ।
___जब जमाली ने अपना अलग मत निकाल दिया तो उसकी औरत जो भगवान की पुत्री और साध्वी के रूप में थी उसने भी जमाली का मत स्वीकार कर लिया था । साध्वियें घूमती हुई सावत्थी नगरी में आई और एक ढंक नाम के श्रावक के मकान में ठहरी । ढंक था भगवान महावीर का श्रावक, जब साध्वियां भिक्षा लेकर आई भौर एक चदर बांध कर अन्दर गोचरी कर रही थी डंक ने साध्वो को समझाने के लिये चहर के एक किनारे अग्नि लगा दी जिसको देख साध्वी चिल्लाने लगी कि मेरी चादर जल गई २ इतने में ढंक ने कहा साध्वी मृषा क्यों बोलती है क्योंकि तुम्हारा मत है कि सम्पूर्ण चादर जल जाने से ही जली कहना । यह सुनते ही साध्वी की अफु ठिकाने आ गई कि जमाली का कहना मिथ्या है और भगवान महा. वीर का कहना सत्य है। उसने भगवान महावीर के पास में जाकर उनकी आज्ञा को स्वीकार किया। इस प्रकार जमाली के कई साधु भगवान के पास आगये हों तो आश्चर्य की बात नहीं है । क्योंकि जमाली का मत अधिक नहीं चला था।
___२-- दूसरा निन्हव तिष्यगुप्त - भगवान महावीर की मौजूदगी में एक वसु नामक आचार्य चौदहपूर्व के ज्ञाता राजगृहनगर के उद्यान में पधारे । अपने शिष्यों को आत्म प्रबोध पूर्व की वाचना दे रहे थे। उसमें तिष्यगुप्तमुनि भी शामिल था । वाचना के अन्दर एक स्थान पर ऐसा वर्णन आया कि
"एगे भंते जीव पएसे जीवेतिवत्तव्वंसिया?णोयणटे समठ्ठ।” अर्थात् आत्मा के एक प्रदेश को जीव कहा जाय ? नहीं। तो क्या दो तीन चार यावत् संख्याता असंख्याता एवं आत्मा के सब प्रदेशों से एक प्रदेश न्यून को जीव कहा जाय ? नहीं । हे शिष्य ! सम्पूर्ण जीव प्रदेशों को ही जीव कहा जाता है। यहाँ पर एवंभूतनय का विषय था पर तिष्य गुप्त ने उसको न समझकर यह निश्चय कर लिया कि एक दो तीन यावत् एक न्यून असंख्याता प्रदेशों में जीव नहीं है पर एक प्रदेश मिला देने से जीव कहा जाता है तो जीव अन्तिम प्रदेश में ही है । इससे उसने उत्सूत्र प्ररूपना कर डाली कि एक अन्तिम प्रदेश में ही जीव है अतः कर्मों का बन्धन भी एक ही प्रदेश पर होता है । तिष्यगुप्त अपनी मान्यता का प्रचार करता हुआ अमलकम्पा नगरी में लाया । वहाँ श्रीमंत्र नामक श्रद्धासम्पन्न श्रावक था। उसके यहां साधु भिक्षार्थ गये । उसने मोदकादि जितने पदार्थ थे उनका अन्तिम एक एक दाना मुनि को बेहगया । मुनि ने कहा श्रावक यह क्या आपकी उदारता है ? श्रावक ने कहा कि यह मेरी उदारता नहीं पर आपकी मान्यता है, कारण आप असंख्याता प्रदेशी जीवात्मा है उसको एक अन्तिम प्रदेश में ही जीव मानते हो । तदनुसार सम्पूर्ण मोदक की सत्ता एक दाने में ही माननी चाहिये । अतः साधु समझ गये, जिन्होंके क्षयोपशम था वे वीर प्रभु के
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[ भगवान् महावीर की परम्परा....
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