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________________ आचार्य यक्षदेव का जीवन ] [ओसवाल संवत् ५१५-५५७ पास चले गये, जिन्होंके मिथ्यात्व मोहनीय का उदय था उन्होंने अपने कदाग्रह को नहीं छोड़ा । यह तिष्यगुप्त मुनि से दूसरे निन्हव का दूसरा मत महावीर के केवल ज्ञान होने के १६ वर्षों के बाद चला। १-तीसरा निन्हव अव्यक्तवादी-आचार्य आसाढ़भूति अपने शिष्यों को आगमों की वाचना दे रहे थे एक समय रात्रि में किसी को खबर न हुई कि वे अकस्मात् काल कर देवयोनि में चले गये । पर वहाँ जाकर तत्कालिक उपभोग लगा कर अपना साधु भव देखा तो शिष्यों के प्रति दया भाव आया कि इन विचारों को वाचना कौन देगा। वे देवशक्ति से अपने मृत कलेवर में प्रवेश हो गये और शिष्यों को ज्यों की त्यों वाचना देने लगे। किसी शिष्य को इसका भान न रहा । जब शिष्यों को वाचना दे चुके तो आप अपने देव. पना का स्वरूप बतला कर चले गये इस हालत में शिष्यों ने विचार किया कि जैसे गुरु महाराज मृत शरीर में रहकर अपने से वंदन करवाया करते थे इस प्रकार और भी साधुओं के शरीर में देव होगा तो कौन जाने, अतः देव अवृति अपच्चारवानी होते हैं,उको हम बन्दन कैसे करें ? एवं वे सबके सब साधुओं ने आपस में वन्दन व्यवहार बन्द कर दिया और स्वच्छन्दचारी बन गये । वे साधु कभी भ्रमण करते थे राजगृह नगर में आये । वहाँ के किसी बलभद्रराजा ने अपने अनुचरों द्वारा उन साधुओं को चोरों के तौर पर पकड़वा मंगवाया और चोरों की भांति उन्हें मारने लगा। तब साधु बोले कि हे राजन् ! तुम श्रावक होकर हम साधुओं को क्यों पिटवाते हो ? राजा ने रहा कि मुझे क्या मालूम कि आप साधु हैं या आपके शरीर में कोई चोर पाकर घुस गया है और मैं न जाने श्रावक हूँ या कोई देव मेरे शरीर में अवतीर्ण हो गया हो । जैसे आपकी मान्यता है कि साधुओं के शरीर में देवता होगा । इत्यादि बहुत युक्तियों से समझाये । राजा के कहने से उन साधुओं के अन्दर से बहुत से साधु 'मिच्छामि दुक्कडं' देकर वीर शासन में शामिल होगये और जिन्होंके विशेष मिथ्यात्वोदय था उन्होंने अपने हठ कदाग्रह को नहीं छोड़ा। यह वीरात् २१४ वर्ष के बाद अव्यक्त नाम का तीसरा निन्हव हुआ । ४. चोथा निन्हव क्षणकवादी अश्वमित्र-आर्य महागिरि के कोंटीन नामक शिष्य था और उसके एक अश्वमित्र शिव्य था। वे विहार करते हुए मथुरा नगरी में आये वहाँ पर आगमों की वाचना होती थी जिसमें शवा पूर्व की वाचना में पर्याय के विषय में आया था कि "सव्वे पडुप्पन्ननेरइया वोच्छिज्जिस्संति, एवं जाव विमाणियात्ति" इस पाठ का अर्थ गुरु महागज ने ठीक समझाने पर भी अश्वमित्र ने विपरीत समझ लिया कि पहिले समय नरकादि जो पदार्थ हैं वह दूसरे समय नष्ट हो जाते हैं और दूसरे समय पुनः नये पदार्थ उत्पन्न होते हैं एवं सब पदार्थ क्षण भंगुर है और समय-समय बदलते रहते हैं । अतः जिस जीव ने पहिले क्षण में पाप एवं पुन्य किया है वह दूसरे सारय नष्ट हो जाता है इस मान्यता के कारण उसने अपना अलग मत निकाल दिया और इस प्रकार प्ररूपना करता हुआ राजगृह नगर में पाया वहाँ पर एक हासिल के महकमा में श्रावक रहता था उसने साधुओं को समझाने के लिये उनको पकड़ कर पीटवाना शुरू किया। साधुओं ने कहा हम साधु तुम श्रावक फिर हमें क्यों पीटवाते हो ? इस पर डानीजी ने कहा कि भापकी मान्यतानुसार अब क्षगान्तर पर्याय पलट गई है अतः आप साधु नहीं मैं श्रावक नहीं इसको सुन प्रवचन के निन्हव ] ५१७ www.jainelibrary.org Jain Education there For Private & Personal Use Only
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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