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वि० सं० ११५-१५७ वर्ष
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
कर बहुत से साधु समझ गये परन्तु जिन लोगों के मिथ्यात्व कर्म का उदय था उन्होंने अपना हठ नहीं छोड़ा । यह चतुर्थ निन्हव महावीर निर्वाण के बाद २२० वर्ष में हुआ।
५-पांचवां गंग नामक निन्हव-आचार्य महागिरि के धनगुप्त नाम का शिष्य और धनगुप्त के गंगदेव नाम का शिष्य था और वह एक बार उलगातीर नदी उतरता था उस समय ऊपर से ताप नीचे से पानी की शीतलता का अनुभव करता हुआ सोचने लगा कि शास्त्रों में कहा है कि एक समय दो क्रिया नहीं होती हैं यह गलत है क्यों कि मैं एक समय दो क्रिया प्रत्यक्ष में अनुभव कर रहा हूँ। इस प्रकार से विचार करता हुआ मुनि गंगदेव ने आचार्य श्री के पास आकर अपने दिल के विचार कहे तो गुरु ने समझाया कि गंगदेव ! शास्त्र में कहाँ वह सत्य हैं एक समय में जीव दो क्रिया नहीं कर सकता एवं वेद नहीं सकता है और तू जो नदी उतरते समय शीत और उष्ण दोनों का अनुभव किया वह एक समय का नहीं पर असंख्षात समय का अनुभव है उसको एक समय समझना बड़ा भारी भूल है । छदमस्थ को अमुभव करने में उपयोग लगने में असंख्यात समय का काल लगता है इत्यादि बहुत समझाया पर गंगदेव नहीं समझा इत्यादि वीर निर्वाण के बाद २२८ वर्षे गंगदेव नामक पंचवाँ निन्हवा हुआ ।
६-छद्रा निन्हव- अन्तरंजिया नगरी में बलश्री नाम का राजा राज करता था वहाँ पर श्रीगुप्त नाम का अचार्य अपने शिष्यों के साथ विराजते थे उसमें रोहगुप्त नाम का शिष्य भी एक था और वह उत्पातिकादि बुद्धि वाला भी था एक समय वहाँ एक परिव्राजक आया था वह विद्या का इतना घमंडी था कि पेट पर लोहे का पाटा लगाया हुआ रखता था और हाथ में एक जम्बू वृक्ष की शाखा लेकर फिरता या किसी ने पूछा कि पंडितजी पेट पर पाटा क्यों बांधा है ? उत्तर में कहा कि मुझे शंका है कि विद्या से मेरा पेट फट नहीं जाय । जम्बू शाखा के लिए कहा कि मुझे जीतने वाला जम्बूद्वीप में भी कोई नहीं है । एक दिन उस परिव्राजक ने नगर में शास्त्रार्थ के लिए उद्घोषणा कराई जिसको आचार्य श्रीगुप्त के शिष्य रोहगुप्त ने स्वीकार करली । बाद वह गुरु महाराज के पास आया और कहा कि मैं परिव्राजक से बाद करूँगा । गुरु महाराज ने इन्कार कर दिया कि इस प्रकार का वितंडावाद करना अच्छा नहीं है। क्योंकि परिव्राजक तात्विक ज्ञान का पंडित नहीं है परन्तु विद्यावली है । वह विच्छू सर्प मूषक वाराह श्रादि विद्या में कुशल है। शिष्य ने कहा कि मैंने कह दिया है अतः शास्त्रार्थ तो करूँगा ही। तब गुरू ने उसको प्रतिपक्ष मयूर, नकुल, बिल्ली, सिंह आदि विद्याएँ दी और रजोहरण भी मंत्र दिया कि जिससे इन्द्र भी जीतने में समर्थ न हो सकेगा। उस विद्या को ग्रहण करके रोहगुप्त राजसभा में गया । उधर से परिव्राजक भी राजसभा में आया! रोहगुप्त ने कहा कि तुम पूर्वपक्ष ग्रहण करोगे या उत्तरपक्ष । परिव्राजक ने सोचा कि मैं पूर्वपक्ष ग्रहण करके इसके ही शास्त्र की बात कहूँ कि जिसको यह खंडन नहीं कर सके । बस, परिव्राजक ने पूर्वपक्ष ग्रहन करके कहा कि राशि दो प्रकार की है। जीव राशि अजीव राशि १ रोहगुप्त ने सोचा कि यह तो हमारा ही सिद्धान्त है परन्तु यहाँ तो था वाद-विवाद । परिव्राजक के पक्ष को खंडन करना था उसने कह दिया कि राशि दो प्रकार की नहीं पर तीन प्रकार की होती है । जीव राशि, अजीव राशि, नौजीवराशि । और जैसे जीवराशि संसार के जीव २-अजीव-राशी घट पटादिक पदार्थ ३--नौजीव-घरोली की काटी हुई पूछ तथा कई स्थानों पर ऐसा भी लिखा है कि रोहगुप्त ने एक सूत का डोरा को गहरा बट लगा कर सभा में रक्खा तो डोरा इधर-उधर चलने लगा। इससे नो जीव राशि साबित करदी । परिव्राजक लाजवाब हो गया कि गुस्से के मारे उसने
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