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________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ५१५-५५७ बिच्छू छोड़े रोहगुप्त ने मयूर छोड़े कि बिच्छुओं को उठा कर ले गये । परिव्राजक ने सांप बनाये तो रोहगुप्त ने नकुल बनाये। परिव्राजक ने मूषक बनाये मुनि ने मंजारि बना दी। उसने मृग बनाया तो मुनि ने बाघ बनाये उसने सुअर बनाया और मुनि ने सिंह बना दिया इस प्रकार परिव्राजक की एक भी न चली तब उसने गर्दभि वेद्या छोड़ी तो मुनि ने रजोहरण से वश में कर ली । इस प्रकार परिव्राजक को पराजित करने से जैनधर्म की खूब प्रभावना हुई फिर रोहगुप्त खूब बाजागाजा एवं आडम्बर से गुरु महाराज के पास आया और सब हाल कहा । इस पर गुरु ने कहा कि जैनधर्म की प्रभावना करना तो अच्छा है परन्तु तीन राशि स्थापन करी यह ठीक नहीं क्योंकि तीर्थङ्करों ने दो राशि कही हैं। अतः तुम राजसभा में जाकर इस बात का मिच्छामि दुकड़ा दो परन्तु रोहगुप्त ने गुरु के वचन को स्वीकार न किया । और तीन राशी नाम का अपना एक नया मत खड़ा कर दिया यह छट्ठा तिराशि निन्हव भगवान महावीर निर्वाण से ५४४ वर्ष में हुआ। ७-गोष्ठामाहिल नामक सातवाँ निन्हव-मालवा देश में दर्शनपुर नगर के वासी एक ब्राह्मण ने आर्य रक्षित के पास दीक्षा ली थी आपका नाम 'गोष्टामाहिल' था । एक समय आर्य दुर्बलिकापुष्य पूर्वाग की वाचना दे रहे थे । अन्य साधुओं के साथ गोष्टामाहिल भी वाचना ले रहा था। आठवें पूर्व में कर्मों का विषय आया कि जीवात्मा के कर्म खीर नीर तथा लोहाग्नि की भांति जीव प्रदेशों में मिल जाते हैं। पर गोष्टामाहिल इस बात को विपरीत समझ कर कहने लगा कि जीव के कर्म स्त्री कंचुक एवं पुरुष जामा और बालक के टोपी की भाँति जीव प्रदेशों के ऊपर लगते हैं अन्दर नहीं । दूसरे नौवें पूर्व में प्रत्यखान के अधिकार में साधुओं को यावत् जीव की सामायिक एवं प्रत्याखान कराया जाता है पर गोष्टामाहिल ने कहा कि जावत्जीव के प्रत्याखान करने पर वांच्छा दोष लगता है। कारण, जीवन के अन्त में भोग की वांच्छा के भाव आ जाते हैं इत्यादि । गोष्टामाहिल के कदाग्रह को दुर्बलिकापुष्या चार्य ने श्री संघ को कहा। तब श्रीसंघ ने अष्टम तप कर देवी की आराधना कर देवी को महाविदेह क्षेत्र में सीमंधर तीर्थङ्कर के पास भेजी। देवी ने जाकर तीर्थङ्कर से पूंछा तो उन्होंने कहा कि दुर्बलिकाचार्य का कहना सत्य है । देवों ने आकर श्रीसंघ को कहा । पर गोष्टामाहिल ने कहा कि देवी झूठी है तीर्थङ्कर ऐसा कभी नहीं कहते इत्यादि गोष्टामाहिल ने अपने कदाग्रह को नहीं छोड़ा। अतः श्रीसंघ ने संघ बाहर कर दिया । एवं गोष्टामाहिल नामक सातवां निन्हव वीरात ५८४ वर्ष में हुआ। इस प्रकार शासन में सात निन्हव हुए इस समय के बाद भी कई निन्हव हुए कइएकों ने साधुओं को वस्त्र पात्र नही रखने का आग्रह किया कइएकों ने भगवान महावीर का गर्भापहार कल्याणक मानने का हट किया, कइएकों ने स्त्रियों को जिनपूजा करने का निषेध किया। कइएकों ने श्रावक को सामायिक पौषध के समय चरवाला का निषेध किया । कइएक ने मूर्तिपूजा का इन्कार किया कइ रकों ने इस समय साधु है ही नही ऐसा आग्रह किया, कइएकों ने मूर्तिपूजा में मिश्र ( पुन्य-पाप ) मानना ठहराया । कइएकों ने स्त्रयों को सामायिक पौषध का निषेध किया। कइएकों ने धानमें जीव मानने से इन्कार किया और कइएकोने मरते जीवों को बचाने में तथा दान देने में पाप बतलाया इत्यादि कलिकाल के प्रभाव से जीवों के मिथ्यात्वोदय होने से जिसके दिल में आई वहीं उत्सूत्र प्ररूपना कर अपना मत निकाल शासनमें छेदभेद डाल टुकड़े २ कर डाले जिसकों हम क्रमशः समय वार यथास्थान लिखेंगे जिसमें यहाँ पर पहला श्राचार्य कृष्णार्षि का शिष्य शिवभूति नामक साधु ने दिगम्बर नाम का मत निकाला जिसको ही लिख दिया जाता है-- JainEdu प्रव प्रवचन के निन्हव ] For Private & Personal Use Only ५१० www.janesbrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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