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________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ अब खास दिगम्बरों की पट्टावलियों को देखिये वे क्या कह रही हैं : "जैनसिद्धान्त भवन आरा" ऐतिहासिक मुख पत्र जिसके सम्पादक पद्मराज रानीवाल कलकत्ता वाले हैं जिसके प्रथम वर्ष किरण ४ पृष्ठ ७१ से ८० तक में नन्दीसंघ बलातगण और सरस्वतीगच्छ की पट्टावली दी है जिसमें लिखा है कि :-- "महावीर के बाद ३ मुनि केवली, ५ मुनि श्रुत केवली, और ११ मुनि दशपूर्वधर रहे यहाँ तक वीरात ३४३ वर्ष बतलाया है उसके बाद वीरात् ४५६ वर्ष तक एकादशांग धारी रहे । इसके बाद कई वर्ष एक अंगधारी रहे इत्यादि ।” अब पाठक स्वयं सो व सकते हैं कि भगवान महावीर के पश्चात् ४५६ वर्ष तक एकादशांगधारी मुनि विद्यमान थे तब यह क्यों कहा जाता है कि भद्रवाहु के समय ( वीरात् १६० ) में ही आगम विच्छेद हो गये । इससे इतना तो स्पष्ट कह देना चाहिये कि हाल जो श्वेताम्बरों के पास अंगसूत्र हैं वे तीर्थङ्कर कथित ही हैं। हाँ, उनकी सूरत असली न रही हो याने संख्या कम हो गई हो पर वे हैं तीर्थङ्करवर्णित इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। जब दिगम्बरों के मतानुसार वीरात् ४५६ वर्ष तक अंगसूत्र का ज्ञान विद्यमान था फिर श्वेताम्बरों सं अलग होने के बाद दिगम्बरों के पास तीर्थङ्करप्रणीत थोड़ा बहुत ज्ञान नहीं रहा इसका क्या कारण ? क्योंकि धारसेनमुनि दो पूर्वधर थे और उनके शिष्य भूतबली और पुष्पदन्त ने सबसे पहिले ग्रंथ लिखे तो उन्होंने पूर्व एवं अंगों को क्यों नहीं लिखा जैसे श्वेताम्बरों ने लिखा था परन्तु दिगम्बरों ने अपनी मत. कल्पना से नये ग्रन्थ बना डाले, इसका कारण ? शायद तीर्थङ्कर कथित आगमों में साधुओं को वस्त्र रखने का विधान होने से दिगम्बरों ने उनको नहीं माना हो और श्वेताम्बरों की निंदा करने की गर्ज से नये मन कल्पित ग्रन्थ बना डाले हों, इनके अलावा और क्या कारण हो सकता है ? दूसरे एक यह भी प्रमाण मिलता है कि श्वेताम्बरों के अंगोपांग आगमों में कहीं पर भी दिगम्बरों का नाम निशान तक भी नहीं है। इससे यह निश्चय हो जाता है कि श्वेताम्बरों के अंगोपांग बहुत प्राचीन हैं अर्थात् दिगम्बरों के मत निकलने के पूर्व के हैं कि जिनमें दिगम्बरों का खंडन मंडन नहीं है । तब दिग. म्बरों के ग्रन्थों में स्थान २ पर श्वेताम्बरों की निन्दा लिखी मिलती है । इससे भी यही साबित होता है कि दिगम्बरों के प्रन्थ दिगम्बर मत निकलने के बाद रचे गये हैं। दिगम्बरों के पास प्राचीन कोई भी अंगोपांग आगम नहीं है । अतः दिगम्बरगत अर्वाचीन समूर्छिम पैदा हुआ एक नया मत है। पुनः एक यह भी प्रमाण मिलता है कि भगवान महावीर के शिष्यों में गोसाला नाम का शिष्य था और उसने भगवान महावीर से खिलाफ होकर अपना नया मत स्थापन किया था जिसका नाम भाजी. वका मत था । इस विषय का उल्लेख बौद्धों के पिटक ग्रन्थों में भी मिलता है और आज इतिहास के संशोधक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध के समय एक आजीवका नाम का मत प्रचलित था और उसका उत्पादक गोसाला था । श्वेताम्बरीय शास्त्र श्रीभगवतीसूत्र शतक १५ वां में गोसाला का विस्तार से वर्णन है परन्तु दिगम्बर शास्त्रों में किसी स्थान पर गोसाला का वर्णन नहीं है । इससे स्पष्ट होजाता है कि दिगम्बरों के पास कोई भी तीर्थङ्कर कथित श्रागम नहीं है। उन्होंने जो दिगम्बर मतोत्पत्ति ] ५२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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