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________________ वि० सं० ११५---१५७ वर्ष ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कुछ लिखा है वह मनः कल्पित ही लिखा है। अतः दिगम्बरमत प्राचीन नहीं है । पर श्वेताम्बरों के अन्दर से निकला हुआ एक अर्वाचीन मत है । कल्पसूत्र की स्थविरावली में जैनधर्म के प्राचार्य उनके गण कुल शाखा का वर्णन किया है। उसी आचार्य एवं गण कुल शाखा के नाम मथुरा के कंकाली टीले से मिली हुई मूर्तियों के शिलालेखों में मिलते हैं देखियेः संवत्सरे ६........." ...... "स्य कुटुंबनिय दानस्य ( बोधुय ) कोट्टियातोगणतो, प्रश्नवाहनकुलतो, मज्जमातोशाखातो सनिकायभतिगालाऐ, थवानि ...... यह लेख सम्वत् ६० का एक खण्डित मूर्ति पर का है। "सं . ४७ ग्र. २ दि २० एतस्य पूर्वाये चारणेगणोयतिधसिक कुलवाचकस्य रोहनदिस्य शिष्यस्य सेनस्य निर्वतक सावन.........''इत्यादि । यह लेख सम्वत् ४७ का एक पत्थर खण्ड पर है। "सिद्ध, नमोअरिहंतो महावीरस्य देवस्य, राज्ञावसुदेवस्य, संवत्सरे ९८ वर्ष मासे ४ दिवसे ११ एतस्य पूर्वा वे आर्य रोहतियतोगणतो परिहासककुलतो पोनपत्ति कातो शाखातो गणस्य आर्यदेवदत्तस्य'..............." 'इत्यादि। "सिद्धं सं० ९ हे. ३ दिन १० गहमित्रस्य धितुशीवशिरिस्य वधु एकडलस्य कोट्टियातोगणतो, आर्य तरिकस्य कुटुविनिये, ठानियातो कुलतो वैरातो शाखातो निवर्तना गहपलायें दिति" __ इन शिलालेखों से स्पष्ट पाया जाता है कि भगवान महावीर की परम्परा के प्राचार्य, गण, कुल, शाखा जो पूर्वोक्त शिलालेखों में लिखा हैं वह श्वेताम्बर समुदाय के पूर्वज ही थे एवं कल्पसूत्र की स्थविरावली में उपरोक्त गण कुल शाखाओं का विस्तार से उल्लेख मिलता है: इनके अलावा डा० जेकोबी लिखते हैं कि: Additions and alterations may have been made in the sacred texts after that time; but as our argument is not based on a single passage or even apart of the Dhammpada, but on the metrical laws of a variety of metres in this and other Pali Books, the admission of alterations and additions will not materially influence our conclusion, viz; that the whole of the jain siddhanta wils compose after the fourth century B. C. इनके अलावा आप आगे चलकर हिन्दूधर्म के शास्त्रों को देखिये जैन मुनियों के लिये क्या कहते हैं"मुण्डं मलिनं वस्त्रंच कुण्डिपात्रसमन्वितम् । दधानं पुंजिका हस्ते चालयन्त पदे पदे ।। १ ॥ वस्त्रयुक्तं तथा हस्तं क्षिप्यमाण मुखे सदा । धर्मेति व्याहरन्तं तं नमस्कृत्य स्थितं हरेः" ।। २ ।। शिवपुराण अध्याय २१ हस्ते पात्रं दधानश्च तुण्डे वस्त्रस्य धारक : मलिनान्येव वासांसि धारयन्तोऽल्ल भापिणाः ।। २५ ।। धर्मोलाभः परं तत्त्वं वदन्तस्ते तथा स्वयम् । मार्जनी धार्यमाणास्ते वस्त्रखण्ड विनिर्मिताम् ।। २६ ॥ श्रीमालपुराण ५३० Jain Educaton International For Private & Personal use only [ भगवान महावीर की परम्परा Singnary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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