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वि० सं० ११५-१५७ वर्ष ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
लिखा जिसको राजा और श्रीसंघ ने हाथी पर स्थापन करके बड़े महोत्सव के साथ जुलूस निकाला। वह दिन था ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी का जिसको आज भी दिगम्बर भाई ज्ञानाराधना में मुख्य मानते हैं ।
__अब सोचने का विषय यह है कि मूल संघ की पट्टावली में मुनि धारसेन का समय वीरात् ६१४ से ६३५ का माना है । जब भूतबलि का समय वीरात् ६६३ से ६८३ बतलाया है। और पुष्पदन्त का समय वीरात् ६३३ से ६६३ फहा है । पाठक सोच सकते हैं कि मुनि धारसेन के समय भूतबलि की दीक्षा ही नहीं हुई थी तो मुनि धारसेन ज्ञान दिया किसको ? जिस भूतबलि और पुष्पदन्त को समकालीन बताते हैं और मुनि धारसेन दोनों को ज्ञान दिया लिखते हैं तब दिगम्बर पट्टावलियां पुष्पदन्त का देहान्त के वर्ष भतबलि की दीक्षा हुई लिखते हैं फिर वे दोनों समकालीन कैसे हो सकते हैं ? इसप्ले दिगम्बरों की बात कल्पित पाई जाती है। न तो धारसेन मुनि दो पूर्व के ज्ञानी थे न उन्होंने पुष्पदन्त और भूतबलि को ज्ञान ही दिया था और न पूर्वो के ज्ञान में ऐसा खंडन मंडन या पक्षपात ही है जैसा कि भूतबलि ने अपने ग्रंथों में लिखा है। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि भूतबनि या पुष्पदन्त ने जो ग्रंथा लिखा है वह किसी पूर्व मुनियों के ज्ञान के आधार पर नहीं लिखा है प्रत्युत अपनी मनः कल्पना से लिखा है और न उन्होंने अपने ग्रन्थ में कहीं पर ऐसा उल्लेख ही किया है कि हमने अमुक पूर्व या अंग के आधार पर लिखा है ।
एक खास मजे की बात तो यह है कि श्वेताम्बरों के लिये तो दिगम्बरभाई कहते हैं कि भद्रबाहु स्वामी के समय बारहवर्षीय दुकाल में तीर्थङ्करकथित सब आगम विच्छेद होगये। जब वीरात् सातवीं शताब्दी में धारसेन मुनि को दो पूर्व का ज्ञान बतलाते हैं । अब सवाल यह होता है कि वे दो पूर्व जो धारसेन मुनिको याद थे वे तीर्थकर कथित थे या अन्यकथित ? यदि तीर्थकर कथित थे तब तो दिगम्बरों के पक्षपात की हद ही हो गई है क्योंकि श्वेताम्बरों के लिये तो लिखना कि भद्रवाहु के समय ( वी० नि० स० १६०) ही सब आगम विच्छेद होगये थे और दिगम्बरों के लिये ( वीर नि० की सातवी शताब्दी) धारसेनमुनि दो पूर्व का ज्ञान रह गया । इससे अधिक पक्षपात ही क्या हो सकता है ?
श्वेताम्बरों के प्राचीन प्रन्थों में उल्लेख मिलता है कि आचार्य भद्रबाहु के समय बारहबर्पोय दुकाल के अन्त में पाटलीपुत्र में श्रमणसंघ ने एकत्र होकर एकादशांग की ठीक व्यवस्था की और स्थूलभद्रमुनि ने भद्रबाहु से चौदह पूर्व का अध्ययन किया और यह बात वास्तव में सत्य भी है । कारण, वीर निर्वाण के पश्चात् १६० वर्ष बहुत नजदीक का समय था वहाँ तक चौदह पूर्वधर विद्यमान हों तो कोई आश्चर्य की बात ही नहीं हैं। बाद आर्यबनके समय द्वादशवर्षीय दुकाल पड़ा और दुकाल के अन्त में सुकाल हुआ तब सोपार पट्टन में प्राचार्य यक्षदेवसूरि के अध्यक्षत्व में पुनः आगम वाचना हुई उस समय तक दशपूर्व का ज्ञान सुरक्षित था तथा आर्य रक्षितसूरि ने उसी समय चारों अनुयोग पृथक् २ किये उस समय आर्य बज्रसूरि दशपूर्वधारी विद्यमान थे। तत्पश्चात् आर्थ स्कन्दिल के समय फिर बारह वर्षीय दुकाल पड़ा और दुकाल के अन्त में सुकाल हुआ तो आर्य स्कन्दिलसूरि की अध्यक्षस्व में मथुरा में संघ एकत्र हुए और उस समय भी एकादशांग की वाचना हुई वे एकादशांग अद्यावधि विद्यमान हैं आर्य यक्षदेव एवं आर्य स्कन्दिल के समय कई आगमपस्तकारूढ़ किये गये थे पर वी. नि० दशवीं शताब्दी में पुनः वल्लभी नगरी में आर्यदेवऋद्धिगणि के नेतृत्व में संघ एकत्र होकर अंगसूत्रों के साथ प्रायः वर्तमान में जितने सूत्र थे उन सबको पुस्तकारूढ़ करवाया वे सब
सूत्र आज श्वेताम्बर समाज के पास मौजूद हैं। Jain Ede international
[ सोनलदेवी और सासु
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