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________________ आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ परमावधेर्युस्थ छद्मस्थस्येव नान्तरायोऽपि । सर्वार्थदर्शनेऽपि स्याद् न चान्यथा पूर्वमपि भुक्तिः॥३२ इन्द्रियविषयप्राप्तौ यदभिनियोधप्रसंजनं भुक्तौ । तच्छब्द-गन्ध-रूप-स्पर्शप्राप्त्या प्रतिव्यूढम् ।।३३॥ छद्मस्थे तीर्थकरे विष्वणनानन्तरं च केवलिनि ! चित्तामलप्रवृत्तौ व्यासैवाऽत्रापि भुक्तवति ॥३४।। विग्रहगतिमापनाद्यागमवचनं च सर्वमेतस्मिन् । मुक्तिं ब्रवीति तस्माद् द्रष्टव्या केवलिनि भुक्तिः नाऽनाभोगाहारः सोऽपि विशेषितो नाऽभूत । युक्त्याऽभेदे नाङ्गस्थिति-पुष्टि-क्षुच्छमास्तेन तस्य विशिष्टस्य स्थितिरभविष्यत् तेन सा विशिष्टेन । यद्यभविष्यदिहैषां शाली-तरभोजनेनेव॥३७|| ॥ इति केवलीभुक्ति प्रकरणं ॥ पाठक स्वयं सोच सकते हैं कि आचार्य शकटायन एक दिगम्बर मत के प्रसिद्ध आचार्य हैं और आप अपने श्रन्थ में युक्ति पूर्वक केवली को केवल आहार करना सिद्ध कर बतलाते हैं फिर दूसरे प्रमाण की आवश्यकता ही क्या है अतः केवली कवल श्राहार करते हैं यह श्वेताम्बरों की मान्यता शास्त्रोक्त ठीक है ___ इनके अलावा दिगम्बरों ने जैन शास्त्रों में क्या-क्या रद्दोबदल किया है उसके लिये महोपाध्याय जी श्रीयशोविजयजी महाराज का बनाया हुआ दिग्पट्ट ८१ बोल और उपाध्याय श्रीमघेविजयजी महाराज कृत युक्ति प्रबोध नामक ग्रन्थों को पढ़ना चाहिये। मनुष्य जब आग्रह पर सवार होता है तब इतना हैवान बन जाता है कि वह अपने हिताहित को भी भूल जाता है । यही हाल हमारे दिगम्बर भाइयों का हुआ है। ___अब हम प्राचीन साहित्य की ओर दृष्टिपात कर देखते हैं तो श्वेताम्बरों के पास तीर्थङ्कर कथित एवं गणधररचित द्वादशांग से एक दृष्टिवाद को छोड़ एकादशांग विद्यमान हैं तब दिगम्बरों के पास द्वादशांग से एक भी अंग नहीं है । दिगम्बरों के पास जो साहित्य है वह दिगम्बर मत ( वी०नि० सं०६०९) निकलने के बाद में दिगम्बराचार्यों का निर्माण किया हुआ ही है और उसके आदि निर्माणकर्त्ता दिगम्बर आचार्य भूतबली और पुष्पदत्त बतलाये जाते हैं जिन्हों का समय वीरनिर्वाण की सातवीं शताब्दी का है।। दिगम्बर भाई कहते हैं कि तीर्थङ्कर कथित एवं गणधर रचित सबके सब आगम अर्थात् द्वादशांग विच्छेद होगये थे और श्वेताम्बरों के पास वर्तमान में जो अंगसूत्र बतलाये जाते हैं वे पीछे से मनः कल्पित नये बनाये हैं और उनके नाम अंग रख दिये हैं । इत्यादि ? __पहिला सवाल तो यही उठता है कि जब तीर्थङ्करप्रणीत सब आगम विन्छेद होगये थे तब दिगम्बराचार्यो ने जिन-जिन ग्रन्थों की रचना की वे किन २ शास्त्रों के आधार से की होगी ? कारण, दिगम्बरों की मान्यतानुसार तीर्थङ्करप्रणीत श्रागम तो सबके सब विच्छेद होगये थे। इससे साबित होता है कि दिगम्बरों ने सब ग्रन्थ मनः कल्पित ही बनाये थे ? या श्वेताम्बराचार्यों के ग्रन्थों से मसाल लेकर अपनी मान्यतानुसार नये ग्रन्थों का निर्माण किया है ? दिगम्बर लोग कहते हैं कि मुनिधारसेन बड़े ही ज्ञानी एवं दो पूर्वधर थे और उन्होंने अपनी अन्तिमा. वस्था में यह सोचा कि मैं अपना ज्ञान किसी योग्य मुनि को दे जाऊँ अतः उन्होंने भूतबलि और पुष्पदन्त नाम के मुनियों को बुलाकर ज्ञान पढ़ाया और मुनि भूतबलि ने उस ज्ञान को सबसे पहिले पुस्तक पर दिगम्बर मतोत्पत्ति । ५२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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