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वि० पू० ४०० वर्ष]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
(५) ऐसी संस्था होने से ही संगठन बल उत्तरोत्तर बढ़ता गया और संगठन बल से ही धर्म या समाजोन्नति के क्षेत्र में वे लोग आगे बढ़ते गये । अतः ऐसी संस्था होने की जरूरत थी।
(६) संस्था का ही प्रभाव था कि जो महाजन संघ लाखों की तादाद में था वह करोड़ों की संख्या तक पहुंच गया।
(७) ऐसी सुदृढ़ संस्था के अभाव से ही पूर्व आदि प्रान्तों में जो लाखों करोड़ों लोग जैनधर्म को छोड़ कर मांसाहारी बन गए थे । यदि उस समय वहां भी ऐसी संस्था होती और उसका कार्य ठीक तौर पर चलता तो आज "सराक" जैसी जैनधर्म पालन करने वाली जातियों को हम अपने से बिछुड़ी हुई कभी नहीं देखते, अतएव ऐसी संस्था का होना अत्यन्त आवश्यक था।
(८) संस्था का ही प्रभाव है कि आज "महाजन संघ" भले ही अल्प संख्यक हो, पर वह जैन धर्म को अपने कंधे पर लिए समप्र संसार के सामने टक्कर खा रहा है अर्थात् उसे जीवित रख सका है। यह "महाजन संघ" बनाने का ही शुभ फल है इत्यादि--
सूरिजी महाराज ने जिस लाभको लक्ष्य में रख 'महाजन संघ' नामक संस्था को जन्म दिया था वे सबके सब सिद्ध हुए आज भी हमारी दृष्टिगोचर हो रहे है धन्य है जैनधर्म को जीवित रखने वाले रिपुंगव के
सूरिजी महाराज जिस उद्देश्य से अनेक आपत्तियों को सहन कर मरुधर में पधारे थे उन्होंने अपने कार्य में खूब सफलता हासिल करली । आज तो उपकेशपुर में जैनधर्म का झंडा फहरा रहा है।
आचार्यश्री उन नूतन श्रावकों को जैनधर्म का स्याद्वाद-तात्विक ज्ञान एवं आचार व्यवहार क्रिया काण्ड वगैरह ज्ञानाभ्यास करवा रहे थे। विशेषतया अहिंसा परमोधर्मः के विषय में उनके संस्कार इस कदर जमा रहे थे कि जीवों को मारना तो क्या पर किसी जीव को दुःख पहुँचाना भी एक जबरदस्त पाप है इत्यादि सम्यक् ज्ञान एवं धर्म का प्रचार कर रहे थे।
इसी प्रकार श्रावक के बारह व्रतों का भी उपदेश कर रहे थे। राजा उत्पलदेव और मंत्री ऊहड़ादि समझदार लोग ज्यों-ज्यों सूरिजी का उपदेश एवं जैनधर्म की विशेषताएँ सुनते थे त्यो-त्यों उनको बड़ा भारी आनन्द आता था।
- इस प्रकार आनन्द में समय जा रहा था । पयूषणों का समय नजदीक आया तो जनता में और भी उत्साह बढ़ गया । सूरिजी की आज्ञानुसार पर्व का खूब आराधन किया । कारण, जैनों में आत्माराधन में सब से बड़ा पर्व पर्दूषण ही है। इधर तो सूरिजी महाराज का उपदेश उधर वे उत्साही श्रावक गण, फिर तो कहना ही क्या था ? आनन्दपूर्वक पाराधन किया।
___ जब आश्विन मास आया तो इधर तो सूरिजी ने आंवल की ओलियों और सिद्धचक्र अाराधन का उपदेश दिया, उधर पूर्वसंस्कारों की प्रेरणा से लोगों को देवीपूजन याद आ गया। वे लोग विचार करने लगे कि इधर तो सूरिजी कह रहे हैं कि जीव हिंसा नहीं करना और उधर है देवी चामुण्डा । यदि इसको बलि न दी जाय तो अपने को सुख से रहने नहीं देगी।
इस बात का विचार कर सब लोग एकत्र हो पूज्य आचार्य महाराज की सेवा में आये और हाथ जोड़ अर्ज करने लगे कि हे पूज्यवर ! यहां की देवी निर्दय होने के कारण भैंसे ओर बकरे का बलिदान लेती है और उन्हें मारने के समय आप कौतूहल से प्रसन्न होती है । रक्तांकित भूमि पर आई चर्म देख
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