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________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्ष खुश होती है और निष्ठुर हृदय वाले उसके भक्त उसे प्रसन्न करने के लिये ऐसे जघन्य कार्य करते हैं। इस पर आचार्यश्री ने कहा कि यह कार्य धर्म के प्रतिकूल एवं महावीभत्सतापूर्ण हैं, अतः आप जैसे धर्मास्माओं को उस देवी के मंदिर में नहीं जाना चाहिये । इस पर भक्त लोगों ने कहा कि हे प्रभो ! यदि हम उस देवी की इस प्रकार पूजा न करें तो वह देवी हमारे सब कुटुम्बों का नाश कर डालेगी। इस पर सूरिजी ने कहा कि तुम क्यों घबराते हो । मैं स्वयं तुम्हारी रक्षा करूंगा । बस!उन भक्त लोगों ने सूरिजी पर विश्वास कर देवी के मंदिर जाना एवं पूजा करना बंद कर दिया। जब देवी ने इस बात को अपने ज्ञान से जाना तो वह प्रत्यक्ष रूप से आचार्यश्री के पास जाकर कहने लगी कि हे प्रभो ! मेरे सेवकों को मेरे मंदिर में आने व पूजन करने से रोक दिया यह आपने ठीक नहीं किया है ? सूरिजी ध्यान में थे अतः कुछ भी उत्तर नहीं दिया इसलिये देवी का क्रोध इतना बढ़ गया कि वह आचार्यश्री को किसी प्रकार से कष्ट पहुँचाना चाहने लगी । अहा ! क्रोध कैसा पिशाच है कि जिसके वश मनुष्य तो क्या पर देव देवी भी अपना कर्त्तव्य भूल कर बे मान बन जाते हैं खैर देवी ने एक परोपकारी आचार्य को कष्ट देने का निश्चय कर लिया। किन्तु आचार्य देव सदैव अप्रमत्तावस्था में रहते थे एवं आप श्रीमान इतने प्रभावशाली थे कि उनके अतिशय प्रभाव के सामने देवी का कुछ भी वश नहीं चला । फिर भी एक समय का जिक्र है कि आचार्यश्री अकाल के समय स्वाध्याय-ध्यान रहित कुछ प्रमाद योनि निद्राधीन थे । उस समय देवी ने उनकी आंखों में वेदना उत्पन्न करदी। सावधान होने पर आचार्यश्री ने जान लिया कि यह तकलीफ देवी ने ही पैदा की है। खैर ऐसा समझ लेने पर भीवे ध्यानस्थ हो गये। बाद चक्रेश्वरी आदि कई देवियें सूरिजी के दर्शनार्थ आई और सूरिजी के नेत्रों में वेदना देख अपने ज्ञान से सब हाल जान लिया और देवी चामुंडा को बुलायी एवं शक्त उपालम्ब दिया । अतः देवी प्रत्यक्ष रूप होकर सूरिजी से कहने लगी कि यह वेदना मैंने ही की है और उसको मैं ही मिटा सकती हूँ । परन्तु श्राप मेरी प्रिय वस्तु जो करड़-मरड़ है वह मुझे दिला दीजियेगा। मैं शीघ्र ही इस वेदना को दूर कर दूंगी और यावञ्चंद्रदिवाकर आपकी किंकरी होकर रहूँगी । यह सुन कर आचार्यश्री ने स्वीकार कर लिया कि मैं तुझे करड़ मरड़ दिला दूंगा। इस पर देवी संतुष्ट होकर सूरिजी की वेदना का अपहरण कर तथा चक्रेश्वरी देवी का सरकार सन्मान कर अपने स्थान पर चली गई । बाद चक्रेश्वरी आदि देवियाँ भी सरिजी को बन्दन कर आदर्य हो गई। ' जब सूरिजी के भक्त-गण श्रावकों ने सुना कि सूरिजी के नेत्रों में बीमारी हुई है और इसका कारण शायद देवी चामुंडा की पूजा बन्द करवाना ही तो न हो ? अतः सुबह होते ही भक्त-लोगों ने सूरिजी के पास आकर नम्रता पूर्वक प्रार्थना की कि हे प्रभो ! यह चामुंडा आप जैसे समर्थ महात्मा से ही इस प्रकार पेश आई है तो हमारे जैसे अल्प सत्व वालों के लिए तो कहना ही क्या है ? जब तक आप यहां विराजमान हैं तब तक तो फिर भी जनता को विश्वास है पर आपके पधार जाने के बाद न जाने यहां का क्या हाल होगा ! अतः हम लोगों की अर्ज है कि आप देवी-पूजन का आदेश दे दीजिये जैसा कि आप मुनासिब समझे । क्योंकि नागरिक लोगों की यह ही इच्छा है। सूरिजी ने उन भावकों को कहा कि यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो तुम पक्वान्न खाजा गुलराव आदि तथा कर्पूर कुंकुमादि से देवी पूजन कर सकते हो यदि तुम लोगों को देवी का भय है तो मैं आपके साथ चलने को भी तैयार हूँ। बस फिर तो था ही क्या ? श्रावकों ने ऐसा ही किया और राजा प्रजा wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwne २७ Jain Education Inte 3onal For Private & Personal Use Only www.jainmhorary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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