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आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ]
[वि० पू० ४०० वर्ष
बाद यज्ञ के विषय के प्रश्न हुये जिसको भी सूरिजी ने इस कदर से समझाये कि राजा प्रजादि उपस्थित लोगों की उस निष्ठुर हिंसा प्रति घृणा और अहिंसा की तरफ विशेष रुचि होने लग गई ।
इस शास्त्रार्थ में भी सूरीश्वरजी का ही पक्ष विजयी रहा और जैनधर्म की जयध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई । बस ! उपकेशपुर में जहां देखो वहां जैनधर्म और श्राचार्य रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज की प्रशंसा एवं गुणानुवाद हो रहा था ।
आचार्यश्री का व्याख्यान हमेशा होता था । उन नूतन जैनों के लिये जिस जिस विषय की आवश्यकता थी उसी विषय का व्याख्यान सूरिजी महाराज दिया करते थे । श्राचार्य श्री इस बात को सोच रहे थे कि इन लोगों को जैनी तो बना दिया पर यह किस प्रकार से सदैव के लिये सच्चे जैन बने रहें इत्यादि । आखिर सूरिजी ने यह निश्चय किया कि इन लोगों के लिये एक ऐसी सुदृढ़ संस्था कायम करवा दी जाय कि जिसके जरिये यह लोग तथा इनकी वंश परम्परा जैनधर्म की उपासना करते रहें। सूरिजी महाराज ने अपने विचारों को कार्यरूप में परिणित करने के लिए राजा उत्पलदेव के अध्यक्षत्व में एक सभा की और सूरिजी ने अपने विचार सभा के सामने उपस्थित किये जिसको सब लोगों ने प्रसन्नतापूर्वक शिरोधार्य किया और आचार्यश्री ने उन नूतन जैन समूह ' के लिये
"महाजन संघ "
नाम से संस्था स्थापन करवादी । जब से उपकेशपुर के जैन - महाजनों के नाम से कहलाने लगे। इस संस्था के कायम करने में सूरिजी महाराज के निम्नलिखित उद्देश्य ही मुख्य थे ।
( १ ) जिस समय प्रस्तुत संस्था स्थापित की थी उसके पूर्व उस प्रान्त में क्या राजनैतिक; क्या सामाजिक, और क्या धार्मिक सभी कार्यों की श्रृंखलायें टूट कर उनका श्रत्याधिक पतन हो चुका था । श्रतः इन सबका सुधार करने के लिये ऐसी एक संगठित संस्था की परमावश्यकता थी, और उसी की पूर्ति के लिये आचार्यश्री का यह सफल प्रयास था ।
( २ ) संस्था कायम करने के पूर्व उन लोगों में मांस मदिरा का प्रचुरता से प्रचार था । यद्यपि आचार्यश्री ने बहुत लोगों को जैनधर्म की शिक्षा दीक्षा देने के समय इन दुर्व्यसनों से मुक्त कर दिये थे । तथापि सदा के लिये इस नियम को दृढ़तापूर्वक पालन करवाने तथा अन्यान्य समाजोपयोगी नये नियमों को बनवा कर उनका पालन करवाने के लिये भी एक ऐसी संस्था की आवश्यकता थी जिसको सूरिजी ने पूर्ण करने का प्रयत्न किया था ।
(३) नये जैन बनाने पर भी जैनों के साथ उनका व्यवहार बंद नहीं करवाया था क्योंकि किसी भी क्षेत्र को संकुचित बनाना श्राप पतन का प्रारंभ समझते थे । पर किसी संगठित संस्था के अभाव में वे नये जैन, शेष रहे हुए आचार -पक्षित जैनों की संगति कर भविष्य में पुनः पतित न बन जायं, इस कारण से भी एक ऐसी संस्था की आवश्कता थी जिसकी सूरिजी ने पूर्ति की ।
( ४ ) ऐसी संस्था के होने पर अन्य स्थानों में अजैनों को जैन बनाकर संस्था में सामिल कर लिया जाय तो नये जैन बनाने वालों को और बनने वालों को अच्छी सुविधा रहे, इसलिए भी ऐसी एक सुदृढ़ संस्था की जरूरत थी। जिसके लिये ही सूरीश्वरजी का यह सफल प्रयत्न था ।
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