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बि० पू० ४०० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
कारण है तो सृष्टि का उपादान कारण जो जड़चैतन्य वह कहाँ से आये ? और इसके पूर्व यह किर स्वरूप में थे कि जिस उपादान को लेकर ईश्वर ने सृष्टि की रचना की इत्यादि सूरीश्वरजी के वचन सुन कर पाडियों की बोलती बंद हो गई वे विचारे इसका उत्तर ही क्या दे सकते ? कारण उन्होंने तत्त्वज्ञान को तो कभी स्पर्श हीं नहीं किया था ।
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वर्णं तमसः पुरस्तात् स्वाहा || याजस्यनु प्रसव आवभूवेमा च विश्वभुवनानि सर्वतः । स नेमिराजा परियति विद्वान् प्रजां पुष्टि वर्धय मानो अस्मै स्वाहा || आतिथ्यरूपंमासरं महावीरस्यनन हु । रुपामुपास दामेत तिथौ रात्रोः सुरासुताः ।। ऋश्वेद
कृकुभः रुपं ऋषभस्य रोचते, बृहछुकः शुक्रस्य पुरोगा, सोमसामस्यपुरोगाः पत्ते सोमादाभ्यं नाम जागृषि तस्मै त्वागृह्णामि तस्मै तं साम सोमाय स्वाहा । स्वास्ति न इंद्रो वृद्धश्रवाः स्वस्तिनः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वास्तिनो बृहस्पतिर्द धातु |
ऋश्वेद
ऋग्वेद
अप्पाददिमेयवामन, रोदसीइमाच विश्वा भुवनानि मन्मना यूथेन निष्टा वृषभो विराजास ॥ सत्राहणंदाघषितुम्रमिध्धं, महामपारं वृषभं सुवज्रहं तापवत्राहा सनितो तं वाजं । नयेदिषः पृथिव्याअंतमायुर्नमायाभिर्धनदापर्यभुवन युजवजवृषभश्चक्रे ।
ऋग्वेद
ॠग्वेद
ऋग्वेद
इमस्तोमअर्हंतेजातवेदसे रथंइवसंमहेयममनीषया, भद्राहि न प्रमंतिअस्यसंसदि । तरणिरित्सषासतिबीजंपुरं ध्याः युजा आवइन्द्र पुरुहूतं नमोंगरा नेमि तष्टेव शुद्ध ।
ऋग्वेद
उपरोक्त प्रमाणों से कितनेक प्रमाण तो आज भी उपलब्ध हैं परन्तु कई प्रमाण स्यात् इस समय वेदों में नहीं मिलते हैं इसका कारण यह हो सकता है कि वेदों की अनेक शाखाओं तथा उन शाखाओं की मंत्रसंहिताओं में भी परस्पर अंतर है जैसे शुक्लयजुर्वेद कृष्णयजुर्वेद आदि वेदों की शाखाओं में भी कई अंतर है अत: जब तक कि समस्त शाखाओं की मंत्रसहिताओं को न देख ली जाय तब तक प्राचीन जैनशास्त्रों में लिखे हुये उपरोक्त मन्त्रों को असत्य नहीं कहा जा सकता है ।
पुस्तकों में न्यूनाधिक करने की पद्धति तो उन लोगों में पहिले से ही चली आ रही है। मनुस्मृति में ग्रंथ श्लोकसंख्या आर्यसमाजी बहुत थोड़ी बतलाते हैं। शेष श्लोकों को जाली एवं प्रक्षिप्त कहते हैं और सनातन धर्मी सम्पूर्ण मनुस्मृति को मनुकृत मानते हैं । इसी प्रकार गीता के मूल ७ श्लोक कहते हैं जिसको बाद में बढ़ा कर ७० श्लोक कर दिये और आज उनके ७०० श्लोक कहे जाते हैं तथा सत्यार्थप्रकाश किताव में आर्यसमाजी जो चाहते हैं वह स्वेच्छाअनुकूल काटछांट कर देते हैं इत्यादि इस विषय में अधिक जानने वाले जिज्ञापुओं को शंकाकोष, पुराणोंकी पोल, पुराण परिक्षा और पुराणलीला आदि ग्रंथों को देखना चाहिये । इनके अलावा अज्ञानतिमिरभास्कर नामक ग्रंथ भी इस विषय पर काफी प्रकाश डाल सकता है उनको भी देखना खास जरूरी है ।
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