SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 365
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २ - वि० सं० १००५ में उपकेशगच्छीय पं० जम्बुनाग ने 'मुनिपति चरित्र' नाम का प्रन्थ लिखा है। और यह ग्रन्थ जैसलमेर के भण्डार में विद्यमान है। ३ - वि० सं० १०११ का एक शिलालेख ओसियों के मन्दिर की एक मूर्ति पर है जिसको श्रीमान् पूर्णचन्द्रजी नाहर ने प्राचीन लेख संग्रह भाग १ पृष्ठ ३१ पर मुद्रित करवाया है । ४ - वि० सं० १०१३ का शिलालेख भी ओसियां के मन्दिर में लगा हुआ है इसको भी श्रीमान् पूर्णचन्दजी नाहर ने प्राचीन लेख संग्रह भाग १ पृष्ठ १९२ पर छपाया है । ५ - वि० सं० १०२५ उपकेशगच्छीय पं० जम्बुनाग ने 'जिनशतक' नामक काव्य की रचना की वह सप्तम काव्य गुच्छक नामक पुस्तक के पृष्ठ ५२ पर मुद्रित हो चुका है। ६ - वि० सं० १०७३ आचार्य देवगुप्तसूरि ने 'नवपद प्रकरण' नामक ग्रन्थ निर्माण किया था वह सेठ देवचन्द्र लालभाई सूरत वालों की ओर से मुद्रित हो चुका है तथा नवतत्वगाथा नामक ग्रन्थ भी इसी आचार्य ने लिखा है । ७ - वि० सं० ९१५ में उपकेशगच्छवाचनाचार्य कृष्णर्षि के शिष्य जयसिंह ने धर्मोपदेशलघुवृत्ति की रचना की थी । यह पाटण के भण्डार में विद्यमान है जिसकी नोंध जैन प्रन्यावली पृष्ठ १८२ पर की गई है। ८ - विक्रम की नौवीं शताब्दी में वायटगच्छीय आचार्य बप्पभट्टलूर एक महाप्रभाविक श्राचार्य हुए जो जैनशासन में विशेष विख्यात हैं । उन्होंने ग्वालियर के राजा श्राम को प्रतिबोध देकर जैन बनाया जिसने ग्वालियर में एक विशाल मन्दिर बना कर उसमें सुवर्णमय मूर्ति स्थापन करवाई थी। राजा आम के एक राणी वैश्यवंश की थी उनकी सन्तान जैनधर्म पालन करने से ओसवंश में शामिल हुई तथा उनमें से किसी ने राजा के कोठार का काम करने से उनको जाति राजकोठारी कहलाई, उसी वंश में स्वनामधन्य कर्माशाह हुआ कि जिन्होंने विक्रमकी सोलहवीं शताब्दी में पुनीत तीर्थ श्रीशत्रुंजय का सोलहवां उद्धार करवाया जिसका शिलालेख आज भी शत्रुंजय तीर्थ पर विद्यमान है उसमें लिखा है कि: एतच गौपाहगिरौ गरिष्टः श्रीबप्पभट्टी प्रतिबोधितश्च । श्री आमराजोऽजनितस्यपत्नी काचित् बभूव व्ययहारि पुत्री ॥ लत्कुक्षि जाताः किल राज कोष्टागाराह गोत्रे सुकृतैक पात्रे । श्री ओसवंशे विशदे विशाले तस्यान्वयेऽमी पुरुषाः प्रसिद्धाः ॥ "प्राचीन लेख संग्रह द्वितीय भाग पृष्ट २” इस लेख से इतना तो स्पष्ट पाया जाता है कि वि० सं० ८०० पूर्व श्रोसवंशीय लोग भारत के चारों ओर फैल गये थे इस प्रकार एक प्रान्त एवं एक नगर में उत्पन्न हुआ महाजनसंघ इस प्रकार फैल जाने में कितनी शताब्दियों का समय चाहिये पाठक स्वयं विचार कर सकते हैं । ९ - मुनि श्री रत्नविजयजी महाराज की शोध खोज से ओसियों के एक भग्न मन्दिर के खण्डहरों में एक टूटी हुई चन्द्रप्रभ की मूर्ति के नीचे खण्डित पत्थर के टुकड़े पर शिलालेख मिला था जिसमें सं० ६०२ XXX आदित्यनाग गोत्रे x x लिखा हुआ था शायद् आदित्यनाग गोत्र वालों ने उस मन्दिर एवं मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई हो। इससे पाया जाता है कि सं० ६०२ पूर्व उपकेशपुर उपकेशवंशियों से फलाफूला एवं अच्छा आबाद था । Jain Edu &nternational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy