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ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ]
[वि० पू० ४०० वर्ष
१० - विक्रम की छुट्टी शताब्दी का जिक्र है कि श्वेत हूण तोरमाण ने पंजाब की तरफ से आकर मार वाड़ को विजय कर भिन्नमाल में अपनी राजधानी कायम की। वहां जैनाचार्य इरिगुप्तसूरि आये थे उन्होंने तोरमाण को उपदेश देकर जैनधर्म का अनुरागी बनाया और उसने भिन्नमाल में भगवान् ऋषभदेव का मंदिर भी बनाया पर तोरमाण के बाद उसका पुत्र मेहिरकुल हुआ। जब से मेहिरकुल ने राजसत्ता हाथ में ली तब से ही जैनों के दिन बदल गये । मेहिरकुल ने जैनों पर इतना सख्त जुल्म गुजारा कि कई जैनों को अपने जान माल बचाने की गरज से जननी जन्मभूमि का त्याग कर सौराष्ट्र, कोंकन और लाट प्रदेश (गुजरात) की श्रर जाना पड़ा था । श्राज उक्त प्रदेशों में ओसवाल, पोरवाल और श्रीमालादि जातियां निवास करती दृष्टिगोचर हो रहों हैं वे सब मेहिरकुल के अत्याचारों से दुखित होकर मारवाड़ से ही गई हुई हैं। अतः विक्रम की छुट्टी शताब्दी में ओसवाल, पोरवाल और श्रीमाल जातियों का मारवाड़ में विशाल संख्या में होना साबित होता है । अतः इससे उपकेशवंश की प्राचीनता साबित होती है ।
११ - वि० सं० ८०२ में आचार्य शीलगुणसूरि की सहायता से वनराज चावड़ा ने श्रणहल्लपुर नाम का नया पाटन शहर बसाया था। उस समय भी चंद्रावती भिन्नमालादि मारवाड़ के नगर ओसवालादि जैन जातियों से सुशोभित थे और कई मुत्सद्दी एवम् व्यापारियों को आमन्त्रण - पूर्वक बड़े ही सन्मान सत्कार से पाटण ले गये थे और यह बात है भी ठीक कि पहिले जमाने में नगर की आबादी का मुख्य कारण महाजन ही समझा जाता था । जहां महाजन होते हैं व्यापार खुल उठता है और व्यापार की उन्नति का कारण भी महाजन ही हैं तथा राजतंत्र चलाने में भी महाजन मुत्सद्दियों की कार्यकुशलता से राज का प्रबन्ध व्यवस्थित और जनता को आराम रहता था । अतः पहिले जमाने में जहां तहां महाजनों की आवश्यकता रहा करती थी । इन प्रमाणों से विक्रम की पांचवीं छट्ठी शताब्दी में ओसवंश के लोग भारत के अनेकों विभागों में फैले हुए थे तो यह जाति कितनी प्राचीन समझी जा सकती है।
५२-वल्लभी का भंग जो एक बार ही नहीं किन्तु कई बार हुआ है पर सबसे पहिली वार वल्लभी का भंग विक्रम की चौथी शताब्दी में हुआ था और उसमें कांगसी का कारण की कथा को मुख्य बतलाई जाती है जिसके लिए प्राचीन ग्रन्थों में लिखा हुआ मिलता है कि
फेफावती नगरी में काकु और पातक नाम के दो बलाह गौत्रीय साधारण गृहस्थ रहते थे। जब वहां से श्रीशत्रुंजय तीर्थ का एक बड़ा भारी संघ निकला तो वे काकु और पातक भी उस संघ में यात्र सिद्धगिरी गए थे । पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण किसी वल्लभीनगरी के साधर्मी भाई ने उन काकु पातक की धर्म-निष्टा देख कर अपने यहां रख लिए और उनको सहायता देकर व्यापार कराया। इन बिरादरों के बड़े भारी पुण्योदय हुए कि उस व्यायार में पुष्कल द्रव्य पैदा कर लिया। बाद इनकी संतान में दो पुरुष पैदा हुए जिन्हों का नाम था शंका और बांका। रांका के एक पुत्री थी जिसका नाम था चम्पा । रांका ने किसी देश के व्यापारियों से अपनी पुत्री चम्पा के लिए एक बाल सँवारने के कारण 'कांगसी' खरीद की थी तथा वह कांगसी ऐसी थी कि वल्लभीनगरी में उसके सदृश दूसरी काँगसी नहीं थी । एक समय राजा शल्यादित्य की कन्या बगीचा में गई थी, भाग्यवशात् उसी समय चम्पा भी वहां आ गई थी । उसके पास कांगसी देखी तो राजकन्या ने कहा कि चम्पा यह कांगसी मुझे दे दे और जितना खर्चा लगा हो वह मेरे से ले ले; पर चम्पा ने बालभाव के कारण कांगसी देने से इन्कार कर दिया और वहां से चल कर अपने मकान पर श्र
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